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समकालीन जनमत, Samkaleen Janmat

( अपने जीवन के आखिरी सालों में मार्क्स ने अपना शोध नये क्षेत्रों में विस्तारित किया- ताजातरीन मानव शास्त्रीय खोजों का अध्ययन किया, पूंजीवाद से पहले के समाजों में स्वामित्व के सामुदायिक रूपों का विश्लेषण किया, रूस के क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन किया तथा भारत, आयरलैंड, अल्जीरिया और मिस्र के औपनिवेशिक शोषण की आलोचना की । 1881 से 1883 के बीच वे यूरोप से बाहर पहली और आखिरी यात्रा पर भी गये। उनके जीवन के इन अंतिम दिनों पर केंद्रित मार्चेलो मुस्तो की किताब ‘द लॉस्ट एयर ऑफ कार्ल मार्क्स : एन इंटेलेक्चुएल बायोग्राफी ‘ में दो गलत धारणाओं का खंडन हुआ है- कि मार्क्स ने अंतिम दिनों में लिखना बंद कर दिया था और कि वे यूरोप केंद्रित ऐसे आर्थिक चिंतक थे जो वर्ग संघर्ष के अतिरिक्त किसी अन्य चीज पर ध्यान नहीं देते थे। इस किताब के जरिए मार्चेलो मुस्तो ने मार्क्स के इस दौर के काम की नयी प्रासंगिकता खोजी है और अंग्रेजी में अनुपलब्ध उनकी अप्रकाशित या उपेक्षित रचनाओं को उजागर किया है ताकि पाठक यूरोपीय उपनिवेशवाद की मार्क्सी आलोचना को, पश्चिमेतर समाज के बारे में उनके विचारों को और गैर पूंजीवादी देशों में क्रांति की सम्भावना संबंधी सिद्धांतों को समझें । अंतिम दिनों की उनकी पांडुलिपियों, नोटबुकों और पत्रों के जरिए मार्क्स की ऐसी तस्वीर उभरती है जो उनके समकालीन आलोचकों और अनुयायियों द्वारा प्रस्तुत छवि से अलग है । इस समय मार्क्स की लोकप्रियता बढ़ी है इसलिए उनके जीवन और उनकी धारणाओं के मामले में कुछ नयी बातें इसमें हैं। अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक और आलोचक गोपाल प्रधान ने मार्चेलो मुस्तो की इस किताब का हिंदी अनुवाद कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। यह पुस्तक आकार बुक्स से छपकर आयी है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत है पुस्तक का एक अंश)

रोटी और गुलाब
अक्टूबर 1879 में फ़ेडरेशन आफ़ द सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी आफ़ फ़्रांस की पहली राष्ट्रीय कांग्रेस मार्सेलीज में संपन्न हुई । इसका जन्म एक साल पहले ही फ़्रांसिसी समाजवाद की विभिन्न धाराओं के एक साथ मिलने से हुआ था । पार्टी में बहुमत हासिल करने के बाद जूल्स गुदे ने ऐसा राजनीतिक कार्यक्रम बनाना शुरू किया जिसका इस्तेमाल चुनाव में भी किया जा सके । पाल लाफ़ार्ग के जरिए उन्होंने मार्क्स से इस जरूरी काम को पूरा करने में मदद करने का अनुरोध किया और तीनों की मुलाकात मई 1880 में लंदन में हुई । लिखे जाने के तुरंत बाद यह कार्यक्रम कई फ़्रांसिसी अखबारों में छपा । इसका सबसे प्रामाणिक रूप 30 जून 1880 को जूल्स गुदे द्वारा स्थापित ल’इगालिते नामक अखबार में छपा । उसी साल नवंबर में संपन्न ल हाव्रे कांग्रेस में यह पारित भी हो गया ।

अगले साल एंगेल्स ने एडुआर्ड बर्नस्टाइन को लिखे एक पत्र में इसके लेखन की पृष्ठभूमि को उजागर किया । कार्यक्रम की ‘प्रस्तावना’

“मार्क्स द्वारा मेरे कमरे में लाफ़ार्ग और मेरी मौजूदगी में (गुदे को) लिखवाई गई: मजदूर मुक्त तभी हो सकता है जब वह काम के औजारों का मालिक हो- चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामूहिक- आर्थिक बदलावों के चलते मालिकाने का व्यक्तिगत रूप लगातार कम होता जा रहा है इसलिए सामुदायिक आदि ही मालिकाना शेष रहता है । ठोस तर्क के साकार रूप में जनता को सारी बातें संक्षेप में समझा दी गई थीं । ऐसी कोई चीज मैंने शायद ही कभी देखी थी और इस संक्षिप्त रूप में भी वह अद्भुत दस्तावेज था ।”

एंगेल्स ने आगे बताया है कि कुछ ही समय बाद ‘कार्यक्रम के बाकी हिस्से’ पर बात हुई, गुदे के मसौदे में कुछेक बदलाव किए गए, ‘कुछ जोड़ा और कुछ हटाया’ । मार्क्स मजबूती के साथ आर्थिक मामलों के तीसरे विंदु (न्यूनतम मजदूरी के बारे में बेवकूफी) को हटाने की वकालत करते रहे लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला । नवम्बर 1880 में मार्क्स की सबसे बड़ी बेटी जेनी लांग्वे ने अपने पति को लिखे पत्र में अपने पिता और गुदे के बीच की इस बहस का जिक्र किया:

“जहां तक न्यूनतम वेतन के निर्धारण का सवाल है तो तुम्हें यह जानकर मजा आएगा कि पापा ने गुदे से उसे कार्यक्रम से हटवाने के लिए सब कुछ किया, समझाया कि अगर इस बात को अपना लिया जाए तो आर्थिक नियमों के मुताबिक इस तयशुदा न्यूनतम का नतीजा उसके अधिकतम होने में निकलेगा । लेकिन गुदे माने नहीं और कहा कि अगर और कुछ नहीं तो इस मांग से मजदूर वर्ग उनकी पकड़ में रहेगा” ।

आखिरकार मार्क्स ने खुद इस मामले को फ़्रेडरिक जोर्गे को लिखी एक चिट्ठी में उठाया:

‘कानून द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय करने जैसी कुछेक बेवकूफियों के अपवाद के अतिरिक्त, जिसे गुदे हमारे विरोध के बावजूद फ़्रांसिसी मजदूरों को प्रदान करना सही समझ रहे थे (मैंने उनसे कहा कि अगर फ़्रांसिसी मजदूर वर्ग इतना बचकाना है कि उसे इस तरह के प्रलोभनों की जरूरत है तो बेहतर है कि कोई कार्यक्रम ही न दिया जाए), इस दस्तावेज के आर्थिक अनुभाग में (कम्युनिस्ट लक्ष्य को कुछेक पंक्तियों में आरम्भ में परिभाषित करने के अलावे) केवल उन्हीं मांगों को शामिल किया गया है जो मजदूर आंदोलन से स्वत:स्फूर्त तौर पर पैदा हुई हैं । फ़्रांसिसी मजदूरों को उनके शाब्दिक घटाटोप से उतारकर जमीन पर ले आना सचमुच बड़ी भारी प्रगति है और इसीलिए इसका विरोध उन सभी बौद्धिक जालसाजों से अपेक्षित है जो ‘बादल एकत्र’ करने के व्यवसाय से जीविका चलाते हैं ।’[1]

700 से कुछ अधिक शब्दों में यह कार्यक्रम मजदूर वर्ग की प्राथमिक मांगों को पेश करता है । इसकी शुरुआत इस मान्यता से होती है कि मजूरी श्रम पर आधारित उत्पादन व्यवस्था में सर्वहारा कभी मुक्त नहीं हो सकता, और कि उनकी मुक्ति उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व हासिल करने से ही होगी । इसके बाद इसमें घोषणा है कि मजदूर वर्ग को किसी भी तरह के भेदभाव- खासकर लिंग या नस्ल से जुड़े भेदभाव- के विरोध में सक्रिय संघर्ष करना होगा और पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की अधीनता को समाप्त करने की मांग उठानी होगी ।

मजदूरों को विकेंद्रित शक्तियों वाली भागीदारी आधारित सरकार का समर्थन करना चाहिए । उन्हें सरकारी कर्जों की मंसूखी और धार्मिक आयाम से विरहित राज्य के लिए लड़ना चाहिए । उन्हें सार्वजनिक खर्च पर सबके लिए शिक्षा के अधिकार को अपनाना चाहिए, सार्वजनिक संपत्ति के निजीकरण का विरोध करना चाहिए और साझा स्वामित्व के सिद्धांत को बुलंद करना चाहिए । इसके साथ ही उन्हें कारखानों का स्व प्रबंधन हासिल करने के लिए गोलबंद होना चाहिए और किसी भी रूप में राजकीय समाजवाद का विरोध करना चाहिए ।

इन लक्ष्यों को साकार करने के लिए जरूरी है कि मजदूर ऐसी स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी के जरिए राजनीतिक रूप से संगठित हों जो अन्य लोकतांत्रिक पार्टियों के साथ होड़ करे और बुर्जुआ पार्टियों के विरुद्ध संघर्ष करे ।

समाजवादी मजदूरों का चुनावी कार्यक्रम

जूल्स गुदे, पाल लाफ़ार्ग, कार्ल मार्क्स

प्रस्तावना

मानकर

कि उत्पादक वर्ग की मुक्ति लिंग या नस्ल आधारित भेदभाव के बिना सभी मनुष्यों की मुक्ति है;

कि उत्पादक केवल तभी मुक्त हो सकते हैं जब उत्पादन के साधन उनके कब्जे में हों;

कि केवल दो रूप हैं जिनके तहत उत्पादन के साधन उनके हो सकते हैं

1 व्यक्तिगत रूप जो आम तौर पर कभी नहीं रहा और औद्योगिक प्रगति के साथ अधिकाधिक समाप्त हो चला है;

2 सामूहिक रूप जिसके भौतिक और बौद्धिक तत्व पूंजीवादी विकास से ही उत्पन्न हो चुके हैं;

मानकर

कि यह सामूहिक अधिग्रहण स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी में संगठित सर्वहारा या मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी कार्यवाही से ही सम्भव है;

कि ऐसे संगठन का निर्माण सर्वहारा के पास उपलब्ध सभी संसाधनों के सहारे करना ही होगा । इन संसाधनों में सार्वभौमिक मताधिकार भी शामिल है जिसे इस प्रकार अब तक धोखे के साधन की भूमिका निभाने वाले उपकरण से बदलकर मुक्ति का उपकरण बना दिया जाएगा;

फ़्रांसिसी समाजवादी मजदूरों ने अपनी कोशिशों का लक्ष्य पूंजीपति वर्ग का आर्थिक और राजनीतिक अपहरण तथा उत्पादन के सभी साधनों को समुदाय को लौटा देना मानते हुए तय किया है कि संगठन और संघर्ष के उपाय के बतौर चुनाव में निम्नांकित तात्कालिक मांगों के साथ उतरा जाए:

(क) राजनीतिक मांग

प्रेस, सभा और संगठन संबंधी सभी कानूनों और सबसे आगे बढ़कर इंटरनेशनल वर्किंग मेन’स एसोसिएशन के विरोध में बने कानून का उन्मूलन । मजदूर वर्ग पर लीव्रे[2] नामक प्रशासनिक नियंत्रण और मालिक के मुकाबले मजदूर की तथा पुरुष के मुकाबले स्त्री की अधीनता स्थापित करने वाली सभी संहिताओं का खात्मा;

1 धार्मिक संस्थाओं के बजट का खात्मा और ‘असंक्राम्य कही जाने वाली चल और अचल वस्तुओं’ (2 अप्रैल 1871 के कम्यून द्वारा अधिसूचित) समेत कारपोरेशनों की समस्त औद्योगिक तथा वाणिज्यिक संपत्ति को जब्त कर राष्ट्र को लौटाना;

2 सार्वजनिक कर्ज की मंसूखी;

3 स्थायी सेना और जनता के आम सैन्यीकरण का खात्मा;

4 प्रशासन और पुलिस पर कम्यून का नियंत्रण

(ख) आर्थिक मांग

1 हफ़्ते में एक दिन आराम या सात दिनों में छह दिन से अधिक काम कराने पर कानूनी प्रतिबंध । बालिगों के लिए काम की अवधि घटाकर कानूनी रूप से आठ घंटे करना । चौदह बरस से कम उम्र के बच्चों से निजी कारखानों में काम कराने की मनाही, चौदह से सोलह बरस के बच्चों के लिए काम की अवधि आठ से घटाकर छह घंटे करना;[3]

2 मजदूर संगठनों द्वारा प्रशिक्षु कामगारों की सुरक्षा का निरीक्षण;

3 मजदूरों के एक सांख्यिकी आयोग द्वारा भोजन की स्थानीय कीमत के अनुरूप प्रत्येक वर्ष निर्धारित न्यूनतम वेतन का भुगतान;

4 फ़्रांसिसी मजदूरों को देय वेतन से कम वेतन पर विदेशी मजदूरों को नियुक्त करने पर कानूनी प्रतिबंध;

5 स्त्री और पुरुष कामगारों को समान काम का समान वेतन;

6 सभी बच्चों को वैज्ञानिक और व्यावहारिक शिक्षा, समाज की ओर से राज्य और कम्यून पर इनके भरण पोषण की जिम्मेदारी;

7 समाज पर वृद्ध और अशक्त लोगों की जिम्मेदारी;

8 मजदूरों की सहकारिता सोसाइटियों और भविष्य निधि सोसाइटियों के प्रशासन में मालिकों के समस्त हस्तक्षेप पर रोक और इन्हें एकमात्र मजदूरों के नियंत्रण में वापस लाया जाए;[4]

9 दुर्घटनाओं के मामलों में नियोक्ता की जिम्मेदारी, जिसके लिए मजदूरों की सुरक्षा के कोश में नियोक्ता की ओर से जमा सिक्योरिटी की गारंटी हो; यह कोश कामगारों की संख्या और संबंधित उद्योग में खतरे की सम्भावना के अनुपात में होगा;

10 विभिन्न कारखानों की विशेष नियमावली बनाने में मजदूरों का हस्तक्षेप होगा; अर्थदंड या मजदूरी के भुगतान पर रोक की शक्ल में मजदूरों को सजा देने का मालिकों का अधिकार खत्म किया जाए (27 अप्रैल 1871 की कम्यून की अधिसूचना);

11 (बैंक, रेल, खान आदि) सार्वजनिक संपत्ति के निजी अधिग्रहण संबंधी समस्त समझौतों का खात्मा, सभी सरकारी कारखानों का संचालन वहां काम करने वाले मजदूरों को सौंपा जाए;

12 सभी परोक्ष करों का उन्मूलन और सभी प्रत्यक्ष करों को तीन हजार फ़्रांक से अधिक आमदनी पर प्रगतिशील आयकर में बदल दिया जाए । सीधे वारिसान के अतिरिक्त किसी और को विरासत सौंपने तथा बीस हजार फ़्रांक से अधिक की समस्त सीधी विरासत पर पाबंदी ।

[1] फ़्रेडरिक जोर्गे को मार्क्स ने 5 नवम्बर 1880 को बताया कि बेवकूफियों में वे सबसे अधिक विरासत के उन्मूलन के बारे में शंकाकुल थे । यह हेनरी द सेंट साइमन (1760-1825) का पुराना प्रस्ताव था जिस पर प्रथम इंटरनेशनल के समय ही मिखाइल बाकुनिन के साथ उनका वाद विवाद हुआ था । मार्क्स के मुताबिक ‘अगर मजदूर वर्ग विरासत का उन्मूलन करने में सक्षम होने की ताकत जुटा लेता है तो वह इतना तकतवर भी होगा कि संपत्तिहरण कर ले । यह अधिक आसान और प्रभावी प्रक्रिया होगी’ ।

[2] लीव्रे एक प्रमाणपत्र होता था जिसमें लिखा होता था कि इस मजदूर पर पुराने नियोक्ता का कोई कर्ज या देनदारी नहीं है । इसके प्रस्तुत किए बिना किसी को काम पर नहीं रखा जाता था । 1890 में जाकर इस प्रथा का खात्मा हुआ ।

[3] इन मांगों को 19वीं सदी के संदर्भ में देखना होगा ।

[4] इन मांगों को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के संदर्भ में देखना होगा ।

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Ο εφικτός εναλλακτικός δρόμος της Παρισινής Κομμούνας

… των Θέσεων η Συντακτική Επιτροπή, με το Editorial που τιτλοφορείται Σύγκρουση!, σχολιάζει το νέο τοπίο που διαμορφώνεται από τις εξελίξεις του τελευταίου τριμήνου: την ψήφιση του νέου (αντ)εργατικού νόμου, τις μαζικές κινητοποιήσεις για την ακύρωσή του, τα φληναφήματα περί «ανάπτυξης για όλους» ή «συμπεριληπτικής ανάπτυξης» από κυβέρνηση και αξιωματική αντιπολίτευση, τη στρατηγική «ενότητας της Κεντροαριστεράς» του ΣΥΡΙΖΑ, τους «πολιτικούς κινδύνους» στα κράτη του αναπτυγμένου καπιταλισμού και την τομή πολιτικής στις ΗΠΑ, την εμβάθυνση των αντιμεταναστευτικών μέτρων στην Ελλάδα με τη συναίνεση της ΕΕ…

Ακολουθεί το κείμενο του Βασίλη Ασημακόπουλου, Η ελληνική εργατική νομοθεσία: Από τη θεσμοποίηση της συλλογικής εργατικής ταυτότητας στον εργαζόμενο ως απομονωμένο άτομο, το οποίο εστιάζει στο πρόσφατο ψευδεπίγραφο νομοθέτημα «Για την προστασία της εργασίας», αναλύοντας πώς αυτό εγγράφει έναν διαμορφωμένο πολιτικο-κοινωνικό συσχετισμό δυνάμεων και μια ευρωπαϊκή τάση, φιλοδοξώντας να συγκροτήσει ένα νέο «εργασιακό παράδειγμα». Αναφορά γίνεται επίσης στις δύο προηγούμενες στιγμές «εργασιακών παραδειγμάτων», επί κυβερνήσεων Ελευθερίου Βενιζέλου και Ανδρέα Παπανδρέου.

Στη συνέχεια της ύλης του τεύχους, ο Marcello Musto, Ο εφικτός εναλλακτικός δρόμος της Παρισινής Κομμούνας, αποτιμά την κληρονομιά της επαναστατικής εκείνης διαδικασίας, με αφορμή την 150η επέτειο από το ξέσπασμά της.

Έπονται τρία σημαντικά θεωρητικά κείμενα: η μελέτη του César Mortari Barreira, Όψεις της κοινωνικο-νομικής αναπαραγωγής στον χρηματιστικοποιημένο καπιταλισμό, το άρθρο του Πάνου Ραμαντάνη , Η σχεσιακή οπτική της εξουσίας. Μια κριτική αντιπαράθεση των θεωρητικών προσεγγίσεων του Μισέλ Φουκώ και του Νίκου Πουλαντζά, με φόντο μια επίμαχη έννοια, και η ανάλυση των Γιώργου Οικονομάκη και Γιάννη Ζησιμόπουλου, Η ταξική διάκριση εργατικής τάξης και δημοσίων υπαλλήλων.

Η ύλη του τεύχους ολοκληρώνεται με τη βιβλιοκριτική του Χρήστου Λάσκου, με τίτλο Μια ολοκληρωμένη μαρξιστική ανάλυση της Ελληνικής Επανάστασης, για το βιβλίο του Γιάννη Μηλιού, 1821 – Ιχνηλατώντας το Έθνος, το Κράτος και τη Μεγάλη Ιδέα .

 

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Clint Jones, Socialism and Democracy

The role of Marx today is an open-ended question because many theor- ists have begun to treat capitalism as if it is dying or already dead. McKenzie Wark, for instance, posits that capitalism is indeed dead and we are faced with something worse for which traditional Marxism may not be the best approach for dealing with the future. She argues that Marx is still relevant but his role is diminished by the loss of his primary adversary in the form of traditional capitalism. Other theorists have written about the near future as if capitalism cannot, or will not, survive long enough to completely destroy the planet and postulate a Marxian revolution but one retrofitted for a future that does not require Marxism to make sense of the post-capital- ist world. These various theories and theorists have made it more important and pressing to consider the relevance of Marxism in the current socio-political climate, and Marcello Musto has put together an excellent volume for delving into Marx making it possible to see in a new light the necessity of Marxist theory to the near future – perhaps especially given the situation of capitalism today. We continue to read and extrapolate from Marx today precisely because the form of capitalism Marx wrote about continues to re-present itself, changing and adapting to historical developments.
Marcello Musto’s The Marx Revival: Key Concepts and New Interpret- ations is not a typical engagement with Marx’s ideas. This book pro- vides readers with what they need to reassess the importance of Marx to our present and near-future socio-political circumstances while still providing the necessary historical and theoretical frame- works for understanding Marx both in his own time as well as our
own. The selected articles are not arranged around a historical pro- gression of ideas. Musto has chosen to allow the authors to focus on key ideas and concepts relevant to any serious discussion of Marxism today. The topics range from the central to the newly devel- oped and the historical is “baked in” to the presentation of the material in each contributor’s analysis of the concept in question. The end result is an excellent telling of Marx’s story while clearly analyzing critical misunderstandings as well as general faults of interpretation in Marxist scholarship.
Each contributor to the volume is a leading voice in Marxist scho- larship and their individual contributions focus on their area of exper- tise. Contributors include Alex Callinicos writing on class struggle, Heather Brown on gender equality, Michael Löwy on revolution, and Robin Small on education, to name but a few among a stellar list of authors. The 22 contributions range from what are capitalism, com- munism, and the various Marxisms that exist today to questions of pol- itical organization, migration, and the role of labor as well as delving into gender relations, globalization, and technology, among other topics.
While each chapter is worthy of close analysis there are a few that stand out for their relevance to the focus of the book – key concepts and new interpretations. For instance, Marcel van der Linden, focusing on the concept of the proletariat, raises serious concerns about how Marx developed an understanding of the revolutionary class. His analysis begins with a short history of the concept of the proletariat before breaking down Marx’s own understanding of this idea as well as its place in the broader framework of communism developed by Marx. Van der Linden pays special attention to the lumpenproletariat and chattel slaves, arguing that Marx failed to fully appreciate the role and relevance of these groups to capitalism. This raises serious ques- tions about Marx’s labor theory of value and, more importantly, leads to the conclusion that Marx’s concept of the proletariat is too exclusionary to be useful either to a proper understanding of the pro- letariat’s relationship to communism or to a practical application of the idea to class struggle today. Van der Linden concludes by arguing that what Marxism needs is a completely new conceptualization of the proletariat.
While the proletariat is central to an understanding of Marx, indeed to any understanding of Marxist struggle, John Bellamy Foster’s contribution focuses on a more recent development in Marxist studies – ecosocialism. Foster provides both a historical frame- work for the concept in Marx’s own works as well as tracing the
development of modern ecosocialism through the latter half of the twentieth century. He does so without burdening the reader with mere reproductions of his own work on the subject; instead, he describes how modern ecosocialism has developed out of close re- examinations of Marx’s works as well as parallel developments in modern applications of Green Theory to Marxism. The end result is both a rich history of the ecosocialist movement and a provocative reconsideration of the importance of Marx to environmental move- ments today. This is especially important in Foster’s recognition of the revolutionary possibilities that exist in environmental movements in the Global South. Though the connections are not made explicit by the authors or by Musto, it is important to recognize that Foster’s con- tribution is made more salient for new and experienced readers of Marx because of contributions like Van der Linden’s.
Though the contributions are not arranged historically or even clustered together thematically it is impossible to read the volume without encountering the crucial interconnectivity of the chapters and their relevance to deepening a reader’s understanding of Marx, especially in a modern context. There is little overlap or redundancy throughout the volume, and it provides a clear picture of Marx’s life, thoughts, and works. Each chapter begins by laying out the historical context for the concept being addressed. This is followed by an expli- cation of the concept’s historical place in Marx’s work and in the Marxist tradition. This sets up an engagement with potential new developments of ideas or new questions that need to be addressed in a twenty-first-century context. This construction of the book ensures that both beginners and those already familiar with Marx will find it useful and full of possibilities since each chapter is an invitation to consider Marx rather than a definitive statement regard- ing Marxism.
Challenging traditional ideas and interpretations of Marx, The Marx Revival contributes to the current critical discourses surrounding the decline of capitalism by arguing that Marx continues to be relevant to such discussions. Musto offers, through multiple chapters, a re- examination of rights and liberties in a bourgeois sense as compared to the abstraction of those rights and liberties from free markets and state capitalism. The goal of such an analysis is to extrapolate the exact means of democratic control necessary to “decommodify” life under capitalism in order to produce the conditions for the actual and eventual end of capitalism. This approach stands in stark contrast to the mainstream interpretations of capitalism and Marxism that dom- inate political discourse today.
The Marx Revival is not simply celebratory of Marx, Marxism, or Marxist ideas. The volume challenges us to think carefully about how we inherit Marx and what will be necessary for a successful Marxism to go forward. This makes the revival of Marxism not just a jubilee but a revision, a re-awakening – indeed, for some, an awa- kening – to the continued revolutionary prospects of the Marxist project.

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村上 允俊, Political Economy Quarterly

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Rethinking Alternatives with Marx (Talk)

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Marcello Musto: «els dubtes de Marx poden ser més útils que les seves certeses»

En l’estudi de les obres de Marx, el seu darrer període vital acostuma a passar inadvertit i es considera un període de declivi físic i intel·lectual. El seu pensament i la seva voluntat de comprensió i intervenció sobre els més variats esdeveniments internacionals i sobre el moviment obrer, però, revelen un Marx ben viu intel·lectualment. Són aquestes darreres reflexions el que forma l’objecte del darrer llibre de Marcello Musto, The Last Years of Karl Marx (amb traducció i edició al català per part de l’editorial Tigre de Paper).

Reproduïm tot seguit aquesta entrevista que realitzà l’editor de Jacobin, Nicolas Allen a l’autor sobre la complexitat de la seva obra i en quin sentit aquesta té utilitat en el context dels debats actuals per l’emancipació.


El ‘darrer Marx’ sobre el que escriviu, que cobreix aproximadament els tres darrers anys de la seva vida a la dècada dels vuitanta del segle XIX, és tractat tot sovint com un apèndix pels marxistes i estudiosos de Marx. A banda de pel fet que Marx no publicà cap obra destacada en els seus darrers anys, per què creieu que aquest període ha rebut considerablement una menor atenció?

Totes les biografies intel·lectuals de Marx publicades fins al dia d’avui han prestat molt poca atenció a l’última dècada de la seva vida, dedicant-hi normalment no més que unes poques pàgines a la seva activitat després de la fi de la Associació Internacional de Treballadors (AIT), el 1872. No és cap casualitat que aquests acadèmics gairebé sempre facin servir el títol genèric de «l’última dècada» per a aquestes parts –molt curtes– dels seus llibres. Si aquest límit és comprensible per als estudiosos com Franz Mehring (1846-1919), Karl Vorländer (1860-1928) i David Riazànov (1870-1938), que van escriure les seves respectives biografies entre les dues guerres mundials i només podien centrar-se en un número limitat de manuscrits sense publicar, per a aquells que van venir després d’aquella època turbulenta la situació és complexa.

Dos dels escrits més coneguts de Marx –Els manuscrits econòmics i filosòfics de 1844 i La ideologia alemanya (1845-46)–, tots dos molt lluny de ser complets, es publicaren el 1932 i van començar a circular només a la segona meitat dels quaranta. Després que la Segona Guerra Mundial donés pas a un sentiment de profunda angoixa resultant de la barbàrie del nazisme, en un clima on les filosofies com l’existencialisme guanyaven popularitat, el tema de la condició de l’individu a la societat va adquirir molta importància i va crear les condicions perfectes per a un creixent interès en les idees filosòfiques de Marx, com ara l’alienació i la condició de la natura humana. Les biografies de Marx publicades en aquest període, com la majoria dels volums especialitzats que sortiren del món acadèmic, reflectiren aquest Zeitgeist i van donar un pes desproporcionat als seus escrits de joventut. Molts d’aquests llibres que afirmaven introduir als seus lectors al pensament de Marx en la seva totalitat, als seixanta i als setanta, estaven, la majoria d’ells, centrats en el període de 1843-48, quan Marx, en el moment de la publicació del Manifest del partit comunista (1848), tenia només trenta anys. En aquest context, no és solament que la darrera dècada de la vida de Marx fos tractada com un apèndix, sinó que fins i tot El capital va ser relegat a una posició secundària. El sociòleg liberal Raymond Aron va descriure perfectament aquesta actitud al llibre D’une Sainte Famille à l’autre. Essais sur les marxismes imaginaires (1969), en el qual es burlava dels marxistes parisencs que passaven ràpidament per sobre de El capital, la seva obra mestra i fruit de molts anys de treball, publicat el 1867, mentre quedaven fascinats per l’obscuritat i el caràcter incomplet dels Manuscrits econòmics filosòfics del 1844. Podem afirmar que el mite del ‘jove Marx’ –alimentat també per Louis Althusser i aquells que argumentaren que la joventut de Marx no podia ser considerada part del marxisme– ha estat el principal malentès a la història dels estudis sobre Marx. Marx no va publicar cap de les obres que considerem «principals» a la primera meitat de la dècada dels quaranta del segle XIX. Per exemple, hom ha de llegir els discursos i resolucions de Marx per a la AIT si es vol entendre el seu pensament polític, no els articles de premsa del 1844 que van aparèixer als Annals Franco-Alemanys. I fins i tot si analitzem els seus manuscrits incomplets, els Grundrisse (1857-58) o les Teories de la plusvàlua (1862-63) eren molt més significatius per a ell que la crítica del neohegelianisme a Alemanya, «abandonada a la crítica rossejadora dels ratolins» el 1846.

La tendència a donar una excessiva importància als seus primers escrits no ha canviat gaire des de la caiguda del Mur de Berlín. Les biografies més recents –malgrat la publicació de nous manuscrits a la Marx-Engels-Gesamtausgabe (MEGA²), l’edició històrico-crítica de les obres completes de Marx i Friedrich Engels (1820-1895), que començà el 1998, i de diversos estudis de gran qualitat sobre la darrera fase de la seva producció intel·lectual– segueixen passant per alt aquest període com es feia abans. Una altra raó d’aquesta negligència és l’elevada complexitat de la majoria dels estudis portats a terme per Marx a l’última etapa de la seva vida. Escriure sobre el jove estudiant de l’esquerra hegeliana és molt més fàcil que posar-se a treure l’entrellat de la complicada teranyina de manuscrits multilingües i interessos intel·lectuals de principis dels vuitanta, i això pot haver obstaculitzat una comprensió més rigorosa dels guanys assolits per Marx. Pensant erròniament que havia abandonat la idea de continuar la seva obra i representant els darrers deu anys de la seva vida com «una lenta agonia», molts biògrafs i estudiosos de Marx han fracassat a l’hora d’observar més atentament el que realment va fer durant aquest període.


A la recent pellícula Miss Marx, hi ha una escena immediatament després del funeral de Marx que mostra a Engels i a Eleanor, la filla més jove de Marx, remenant papers i manuscrits a l’estudi de Marx. Engels inspecciona un full i fa una observació sobre l’interès de Marx els darrers anys en les equacions diferencials. The Last Years of Karl Marx sembla donar la impressió que en els seus últims anys el ventall d’interessos de Marx era particularment ampli, molt més del que ho era en el passat. Hi havia algun fil conductor que relligués aquesta preocupació amb temes tan diversos com ara l’antropologia, l’ecologia, les matemàtiques, la història i el gènere, entre d’altres?

Poc abans de la seva mort, Marx demanà a la seva filla Eleanor que recordés a Engels «fer alguna cosa» amb els seus manuscrits inacabats. Com se sap, durant els dotze anys que va sobreviure a Marx, Engels va emprendre la tasca d’Hèrcules d’enviar a imprimir els volums segon i tercer d’El capital, en els quals el seu amic havia treballat de continu des de la meitat de la dècada dels seixanta fins el 1881, però que no havia aconseguit completar. Altres textos escrits pel propi Engels després de la mort de Marx el 1883 indirectament també complien la seva voluntat i estaven estretament relacionats amb les investigacions que havia portat a terme durant els darrers anys de la seva vida. Per exemple, Els orígens de la família, la propietat privada i l’estat (1884) va ser descrit pel seu autor com «l’execució d’un llegat» i estava inspirat en la recerca de Marx en antropologia, en particular en els passatges que va copiar, el 1881, de Ancient Society (1877) de Henry Morgan (1818-1881), i pels comentaris que va afegir als fragments copiats d’aquest llibre.

No només hi ha un fil conductor a la recerca dels darrers anys de Marx. Alguns dels seus estudis sorgeixen dels descobriments científics recents sobre els quals volia estar al dia, o d’esdeveniments polítics que considerava significants. Marx ja havia après abans que el nivell general d’emancipació en una societat depenia del nivell d’emancipació de les dones, però els estudis antropològics realitzats a la dècada dels vuitanta li van donar l’oportunitat d’analitzar l’opressió de gènere amb més profunditat. Marx va dedicar molt menys temps a les qüestions ecològiques que en les dues dècades anteriors, però per altra banda es va submergir una altra vegada en temes històrics. Entre la tardor del 1879 i l’estiu del 1880 va completar un quadern titulat Notes sobre la història índia (664-1858) i, entre la tardor del 1881 i l’hivern del 1882, va treballar de manera intensiva en els anomenats Extractes cronològics, una cronologia anual comentada de 550 pàgines escrita en una cal·ligrafia més petita del que era habitual en ell. Aquests extractes incloïen resums dels esdeveniments mundials des del primer segle a.C. fins a la Guerra dels Trenta Anys al 1648, resumint les causes i les característiques més destacades de cadascun d’ells. És possible que Marx volgués posar a prova si les seves nocions estaven ben fonamentades a la llum dels principals esdeveniments polítics, militars, econòmics i tecnològics del passat. En qualsevol cas, cal tenir en compte que quan Marx va començar aquesta tasca, era ben conscient de la fragilitat del seu estat de salut, que el prevenia a l’hora d’emprendre un esforç final per completar el segon volum de El capital. La seva esperança era fer totes les correccions necessàries per preparar una tercera edició revisada del primer volum, però al final no disposava ni tant sols de forces per fer això.

No diria, però, que la recerca que va realitzar en els seus darrers anys fos més àmplia que d’habitud. Potser l’amplitud de les seves investigacions és més evident en aquest període perquè no les va realitzar en paral·lel a la redacció de qualsevol llibre o manuscrit preparatori significant. Però els diversos milers de pàgines d’anotacions fetes per Marx en vuit idiomes, des que era un estudiant universitari, d’obres de filosofia, art, història, religió, política, dret, literatura, història, economia política, relacions internacionals, tecnologia, matemàtiques, fisiologia, geologia, mineralogia, agronomia, antropologia, química i física, són testimoni de la seva fam perpètua de coneixement, amb una varietat de disciplines molt àmplia. El que pot sorprendre és que Marx va ser incapaç d’abandonar aquest hàbit fins i tot quan la seva força física minvà considerablement. La seva curiositat intel·lectual, juntament amb el seu esperit d’autocrítica, superava una gestió més centrada i «judiciosa» de la seva obra. Però aquestes idees sobre «allò que Marx hauria d’haver fet» són normalment fruit d’un desig retorçat d’aquells a qui hauria agradat que fos un individu que no hagués fet res més que escriure El capital, i que fins i tot no s’hagués defensat de les controvèrsies polítiques en les quals es va veure implicat. Fins i tot si es va definir una vegada a si mateix com «una màquina condemnada a devorar llibres per després, llençar-los, en una forma modificada, a les escombraries de la història», Marx era humà. El seu interès en les matemàtiques i el càlcul diferencial, per exemple, començaren com un estímul intel·lectual en la seva cerca d’un mètode d’anàlisi social, però va convertir-se en un espai lúdic, un refugi en moments de gran dificultat personal, «una ocupació per mantenir la calma d’esperit», com acostumava a dir a Engels.


En la mesura que hi ha estudis sobre els darrers escrits de Marx, aquests tendeixen a centrar-se en la recerca sobre societats no-europees. Reconeixent que hi ha altres vies de desenvolupament a banda del «model occidental», és just dir, com fan alguns, que aquest Marx estava esdevenint un nou Marx «no eurocèntric»? O seria més precís afirmar que aquest era Marx admetent que la seva obra mai va tenir la intenció d’aplicar-se sense tenir primer en compte la realitat concreta de les diferents societats històriques?

La primera clau, i la més important, per comprendre l’àmplia varietat d’interessos geogràfics en la investigació de Marx durant la darrera dècada de la seva vida la trobem en el seu pla per proporcionar un estudi més complet de les dinàmiques del mode de producció capitalista a escala mundial. Anglaterra havia estat el principal camp d’estudi al primer volum de El capital. Després de la seva publicació va voler ampliar les investigacions socioeconòmiques dels dos volums de El capital que encara quedaven per escriure. Per aquesta raó va decidir aprendre rus el 1870 i va demanar constantment llibres i estadístiques sobre Rússia i els Estats Units d’Amèrica. Creia que l’anàlisi de les transformacions econòmiques d’aquests països hauria estat molt útil per comprendre les possibles formes en les quals el capitalisme pot desenvolupar-se en diferents períodes i contextos. L’element crucial és subestimat en la bibliografia secundària del tema «Marx i l’eurocentrisme», ara tan de moda.

Una altra qüestió clau de la investigació de Marx de les societats no europees era si el capitalisme era un requisit previ necessari per al naixement d’una societat comunista i a quin nivell havia de desenvolupar-se internacionalment. La noció multilineal més pronunciada, que Marx assumí en els sus darrers anys, el va portar a observar amb més atenció les especificitats històriques i desigualtats del desenvolupament econòmic i polític a diversos països i contextos socials. Marx va esdevenir molt escèptic cap a la transferència de categories interpretatives entre contextos històrics i geogràfics completament diferents i, com va escriure, també s’adonà que «esdeveniments d’una importat similitud, que s’esdevenen en contextos històrics diferents, porten a resultats completament distints». Aquesta aproximació certament augmentà les dificultats a les quals feia front en el camí, ja aleshores ple d’obstacles, per completar els volums inacabats de El capital, i va contribuir a la lenta acceptació que la seva obra principal romandria incompleta. Però certament obria noves esperances revolucionàries.

En contra del que alguns autors creuen ingènuament, Marx no va descobrir de sobte que havia estat eurocèntric i va dedicar la seva atenció a nous subjectes d’estudi perquè va sentir la necessitat de corregir els seus punts de vista polítics. Sempre havia estat un «ciutadà del món», com li agradava anomenar-se, i constantment havia intentat analitzar els canvis econòmics i socials en les seves implicacions globals. Com s’ha dit ja, com qualsevol altre pensador a la seva alçada, Marx era conscient de la superioritat de l’Europa moderna sobre els altres continents del món en termes de producció industrial i organització social, però mai considerà aquest fet contingent com un factor necessari o permanent. I, per descomptat, va ser sempre un abrandat enemic del colonialisme. Aquestes consideracions són veritablement òbvies per a qualsevol que hagi llegit Marx.


Un dels capítols centrals de The Last Years of Karl Marx tracta sobre la relació de Marx amb Rússia. Com demostreu, Marx va establir un diàleg molt intens amb diferents sectors de l’esquerra russa, especialment al voltant de la seva recepció del primer volum de El capital. Quins eren els punts principals d’aquests debats?

Durant molts anys, Marx identificà Rússia com un dels principals obstacles per a l’emancipació obrera. Va emfatitzar en diverses ocasions que el seu lent desenvolupament econòmic i règim polític despòtic havien ajudat a fer de l’imperi tsarista una posició avançada de la contrarevolució. Però en els darrers anys va començar a mirar-se Rússia d’una altra manera. Va reconèixer algunes condicions possibles per a una transformació social d’envergadura des de l’abolició de la servitud el 1861. Per a Marx, Rússia semblava un terreny més propici per a una revolució que Regne Unit, on el capitalisme havia creat proporcionalment el major número d’obrers fabrils del món, però on el moviment obrer, gaudint de millors condicions de vida basades en l’explotació colonial, s’havia afeblit i experimentat la influència negativa del sindicalisme reformista.

Els diàlegs establerts per Marx amb revolucionaris russos eren tant intel·lectuals com polítics. En la primera meitat dels setanta va familiaritzar-se amb la principal literatura crítica sobre la societat russa i va dedicar una atenció especial a l’obra del filòsof socialista Nikolai Txernixevski (1828-1889). Creia que un fenomen socialment donat que havia assolit un alt nivell de desenvolupament en les nacions més desenvolupades podia estendre’s molt ràpidament a altres pobles i passar d’un nivell més baix a un de més alt directament, estalviant-se les fases intermèdies. Això va donar a Marx molt de material per pensar-hi i reconsiderar la seva concepció materialista de la història. Temps enrere ja havia esdevingut conscient que l’esquema de progressió lineal a través dels modes de producció asiàtic, antic, feudal i burgès modern, que havia presentat al prefaci a la seva Contribució a la crítica de l’economia política (1859), era completament inadequat per a la comprensió del moviment de la història, i que, encara més, era recomanable mantenir-se allunyat de tota filosofia de la història. No podia concebre ja una successió de modes de producció en el curs de la història com una seqüència fixa d’estadis predefinits.

Marx també va aprofitar l’oportunitat per debatre amb militants de diverses tendències revolucionàries a Rússia. Valorava molt el caràcter planer de l’activitat política del populisme rus –que a l’època era un moviment anticapitalista d’esquerres– particularment perquè no recorria a floritures ultrarevolucionàries sense sentit o a generalitzacions contraproduents. Marx jutjava la rellevància de les organitzacions socialistes existents a Rússia pel seu caràcter pragmàtic, no per la declaració de lleialtat a les seves pròpies teories. De fet, observà que els més doctrinaris eren amb freqüència aquells que es declaraven «marxistes». La seva exposició a les teories i l’activitat dels populistes russos –com passà amb els communards de París una dècada abans– el va ajudar a ser més flexible en l’anàlisi de la irrupció d’esdeveniments revolucionaris i les forces subjectives que els donaven forma. El va apropiar a un vertader internacionalisme a escala global.

La qüestió central dels diàlegs i intercanvis que Marx va tenir amb moltes figures de l’esquerra russa era un tema molt complex sobre el desenvolupament del capitalisme, que tenia, òbviament implicacions polítiques i teòriques crucials. La dificultat d’aquest debat també s’evidencia en la decisió final de Marx de no enviar una aguda carta en la que criticava algunes interpretacions errònies sobre El capital al periòdic Otechestvennye Zapiski, o per respondre a «la qüestió de vida o mort» de Vera Zassúlitx (1849-1919) sobre el futur de la comuna rural (la obxina) només amb una carta breu i cautelosa, i no amb un text més llarg que havia escrit i reescrit amb evident interès en tres esborranys preparatoris.


La correspondència de Marx amb la socialista russa Vera Zassúlitx ha estat objecte de molt d’interès darrerament. Marx suggeria que la comuna rural russa potencialment podria apropiar-se dels darrers avantatges de la societat capitalista –en particular, de la seva tecnologia– sense haver de passar per les convulsions polítiques que havien estat tan destructives per als camperols europeus occidentals. Podeu explicar amb una mica més de detall el pensament que portà a Marx a les seves conclusions?

Per una coincidència fortuïta, la carta de Zassúlitx arribà a Marx en el moment que el seu interès per les formes arcaiques de comunitat havien anat a més el 1879 a través de l’estudi de l’obra del sociòleg Maksim Kovalevski (1851-1916), portant-lo a prestar una major atenció als descobriments més recents realitzats pels antropòlegs de la seva època. La teoria i la pràctica el van portar al mateix lloc. Basant-se en les idees suggerides per l’antropòleg Morgan, va escriure que el capitalisme podria ser reemplaçat per una forma superior de producció col·lectiva arcaica. Aquesta afirmació ambigua requereix almenys de dues clarificacions. La primera, que gràcies al que havia après de Txernixevski, Marx argumentà que Rússia no podia permetre’s repetir tots els estadis històrics d’Anglaterra i altres països europeus occidentals. En principi, la transformació socialista de l’obxina podria ocórrer sense haver de passar necessàriament pel capitalisme. Però això no significa que Marx hagués canviat la seva opinió crítica de la comuna rural a Rússia, o que creiès que els països on el capitalisme estava encara subdesenvolupat estaven més a prop d’una revolució que altres amb un desenvolupament productiu més avançat. No es va convèncer de sobte que les comunes rurals arcaiques fossin un lloc més avançat per a l’emancipació de l’individu que a les relacions socials existents sota el capitalisme. En segon lloc, la seva anàlisi de la possible transformació progressiva de l’obxina no significava que pogués elevar-se a un model més general. Era una anàlisi específica d’una producció col·lectiva particular en un moment històric precís. En altres paraules, Marx revelà la flexibilitat teòrica i la manca d’esquematisme que molts marxistes després d’ell no van saber demostrar. Al final de la seva vida, Marx revelà una obertura teòrica molt més gran, que li va permetre considerar altres vies al socialisme que mai abans s’havia pres seriosament o que havia considerat com a inassolibles.

Els dubtes de Marx van ser reemplaçats per la convicció que el capitalisme era un estadi del desenvolupament històric del qual no es podia escapar a cada país i condició històrica. L’interès renovat que veiem avui per les consideracions que Marx mai va enviar a Zassúlitx, i per altres idees similars expressades de manera clara en els seus darrers anys, rau en la concepció d’una societat post-capitalista que es troba a anys llum de l’equació de socialisme amb forces productives, una noció que té matisos nacionalistes importants i una simpatia cap al nacionalisme, que es reafirmà dintre de la Segona Internacional i els partits socialdemòcrates. Les idees de Marx diferien profundament del suposat «mètode científic» de l’anàlisi social preponderant a la Unió Soviètica i els seus satèl·lits.


Fins i tot si la lluita de Marx amb els seus problemes de salut és molt coneguda, resulta dolorós llegir el darrer capítol de The Last Years of Karl Marx, on recolliu cronològicament el seu deteriorament físic. Les biografies intel·lectuals de Marx apunten, correctament, a que per apreciar Marx per complet cal connectar la seva vida i activitats polítiques amb el seu cos teòric. Però què ocorre en aquest període darrer en el qual Marx estava pràcticament inactiu, incapacitat físicament? Com us aproximeu a aquest període com a autor d’una biografia intel·lectual?

Un dels millors estudiosos de Marx que mai ha existit, Maximilien Rubel (1905-1996), autor de Karl Marx: essai de biographie intellectuelle (1957), argumentà que per ser capaços d’escriure sobre Marx cal ser una mica filòsof, una mica historiador, una mica comunista i una mica sociòleg, tot alhora. Jo afegiria que escrivint la biografia de Marx un acaba aprenent molt de medicina. Marx va patir al llarg de la seva vida adulta tota una sèrie de problemes de salut. El més persistent d’ells va ser una greu infecció epidèrmica que l’acompanyà durant tot el període de redacció de El capital i es manifestà en abscessos i funicles a diverses part del cos que el debilitaven. Aquesta va ser la raó per la qual quan Marx va finalitzar la seva magnum opus va escriure: «Espero que la burgesia recordi dels meus carboncles fins al dia de la seva mort!»

Els darrers dos anys de la seva vida van ser particularment difícils. Marx va patir un dolor terrible per la pèrdua de la seva dona i la seva filla major i tenia una bronquitis crònica que es desenvolupava a sovint en una pleuresia severa. Va lluitar, en va, per trobar el clima que li proporcionés les millors condicions per recuperar-se, i va viatjar, per si sol, per Anglaterra, a França i fins i tot a Algèria, on es va embarcar en un llarg període de complicat tractament. L’aspecte més interessant d’aquesta part de la biografia de Marx és la sagacitat, sempre acompanyada d’ironia cap a si mateix, que manifestà per suportar la fragilitat del seu propi cos. Les cartes que va escriure a les seves filles i a Engels quan va sentir que estava a prop de la seva fi fan més evident el seu aspecte més íntim. Revelen la importància del que he anomenat «el món microscòpic», començant per la passió que sentia pels seus nets i que incloïen les consideracions d’un home que havia viscut una existència llarga i intensa i havia aconseguit avaluar-ne tots els seus aspectes.

Els biògrafs han de tenir en compte els patiments de l’esfera privada, especialment quan són rellevants per comprendre millor les dificultats subjacents a la redacció d’un llibre, o els motius pels quals un manuscrit pot romandre inacabat. També deuen saber on detenir-se i evitar fer una mirada indiscreta a afers exclusivament privats.


Bona part del darrer pensament de Marx està contingut en cartes i esborranys inacabats. Hauríem de donar a aquests escrits el mateix estatus que als seus textos millor acabats? Quan dieu que l’escriptura de Marx és «essencialment incompleta», teniu alguna cosa així en ment?

El capital va quedar inacabat a causa de la pobresa asfixiant en la qual Marx va viure durant dues dècades i perquè la seva mala salut constant es barrejava amb les seves preocupacions diàries. No cal dir-ho, la tasca que es va imposar a si mateix –comprendre el mode de producció capitalista en la seva mitjana ideal i descriure les tendències generals del seu desenvolupament– era extraordinàriament difícil d’aconseguir. Però El capital no va ser l’únic projecte que va quedar inacabat. L’autocritica sense pietat de Marx augmentà les dificultats de més d’una de les seves empreses i l’excepcional quantitat de temps que dedicà als diversos projectes que volia publicar era deguda a l’extrem rigor al que sotmetia tot el seu pensament. Quan Marx era jove, era conegut entre els seus amics de la universitat per la seva meticulositat. Hi ha històries que el retraten com algú que rebutjava escriure una frase si no era capaç de demostrar-la de deu maneres diferents. Per aquest motiu és el més prolífic jove de l’esquerra hegeliana que publicava menys que molts dels altres. La creença de Marx que la seva informació era insuficient, i els seus judicis estaven encara per madurar, li prevenia de publicar els seus escrits, que van romandre en forma d’esquema o fragments. Però és per aquest motiu que les seves notes són extremadament útils i haurien de ser considerades com una part integral de la seva obra. Moltes de les seves tasques incessants han tingut conseqüències teòriques extraordinàries per al futur.

Això no significa que es pugui donar als seus textos incomplets el mateix pes que aquells que es publicaren. Jo distingiria cinc tipus d’escrits: les obres publicades, els manuscrits preparatoris, els articles periodístics, la correspondència, i els quaderns de fragments. Però dintre d’aquestes categories han de fer-se distincions. Alguns dels textos publicats de Marx no deurien ser vistos com la seva paraula definitiva sobre determinades qüestions. Per exemple, el Manifest del partit comunista fou considerat per Engels i Marx com un document històric de la seva joventut i no com el text definitiu en el qual s’afirmaven les seves principals idees polítiques. O cal tenir present que els escrits de propaganda política i els escrits científics no són molt a sovint combinables. Malauradament, aquesta mena d’errors són molts freqüents en la bibliografia secundària sobre Marx. Per no esmentar l’absència de la dimensió cronològica de moltes de les reconstruccions del seu pensament. Els textos dels anys quaranta no poden citar-se indiscriminadament al costat d’aquells dels seixanta i setanta, ja que no tenen el mateix pes quant a coneixement científic i experiència política. Alguns escrits van ser redactats per Marx per a ell, mentre que altres eren materials preparatoris per a publicar en forma de llibre. Alguns van ser revisats i actualitzats per Marx, mentre que altres els va abandonar sense la possibilitat d’actualitzar-los (en aquesta categoria hi ha el tercer volum de El capital). Alguns articles periodístics contenen consideracions que poden ser vistes com una manera de completar l’obra de Marx. Altres, en canvi, van ser escrits ràpidament per ingressar diners i poder pagar el lloguer. Algunes cartes inclouen els punts de vista reals de Marx sobre les qüestions debatudes. Altres contenen només una versió suavitzada, perquè estaven adreçades a gent de fora del cercle de Marx, amb els quals havia de d’expressar-se de vegades necessàriament de manera diplomàtica. Per tots aquests motius, és prou clar que un bon coneixement de la vida de Marx és indispensable per a una correcta comprensió de les seves idees. Finalment, hi ha més de 200 quaderns que contenen resums (i en ocasions també comentaris) de tots els llibres més importants llegits per Marx durant un període molt llarg, que va del 1838 al 1882. Són essencials per comprendre la gènesi de la seva teoria i d’aquells elements que va ser incapaç de desenvolupar com hauria desitjat. Les idees concebudes per Marx durant els darrers anys de la seva vida van quedar recollides principalment en aquests quaderns. Són certament molt difícils de llegir, però ens permeten accedir a un tresor preciós: no només la investigació de Marx completada abans de la seva mort, sinó també les qüestions que es preguntava a si mateix. Alguns dels seus dubtes poden ser-nos més útils que algunes de les seves certeses.

 

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Homenaje a Rosa Luxemburgo

En agosto de 1893, cuando fue llamada por la presidencia de la asamblea, en el Congreso de la Segunda Internacional de Zúrich, Rosa Luxemburgo ocupó su sitio sin demora entre los delegados y militantes que llenaban el abarrotado salón. Era una de las pocas mujeres presentes allí, todavía muy joven, de complexión pequeña y con una deformación en la cadera que la obligaba a cojear desde los cinco años. Su aparición despertó la impresión de estar frente a una persona frágil.

Sin embargo, sorprendió a todos cuando, tras subirse a una silla, para hacerse oír mejor, consiguió la atención de todo el público, sorprendido por la maestría de su dialéctica y fascinado por la originalidad de sus tesis. Para Luxemburgo, de hecho, la reivindicación central del movimiento obrero polaco no debía ser la construcción de una Polonia independiente, como se venía repitiendo por unanimidad. Polonia seguía dividida en tres entre los imperios alemán, austro-húngaro y ruso; su reunificación resultaba difícil de conseguir, pero a los trabajadores se les debía presentar objetivos realistas que pudieran generar luchas prácticas en nombre de necesidades concretas.

Con un razonamiento que desarrolló en los años venideros, amonestó a quienes enfatizaban el tema nacional, convencida de que la retórica del patriotismo sería utilizada peligrosamente para debilitar la lucha de clases y relegar la cuestión social a un segundo plano. A las muchas opresiones sufridas por el proletariado, no era necesario agregar “su esclavitud a la nacionalidad polaca”. Para enfrentar este escollo, Luxemburgo esperaba el nacimiento de autogobiernos locales y el fortalecimiento de la autonomía cultural que, una vez establecido el modo de producción socialista, actuarían como una barrera para el posible resurgimiento de regurgitaciones chovinistas y otras nuevas discriminaciones. Diferenció la cuestión nacional de la del Estado nacional.

El episodio del Congreso de Zúrich simboliza toda la biografía intelectual de quien fue uno de los exponentes más significativos del socialismo del siglo XX. Nacida hace 150 años, el 5 de marzo de 1871, en Zamosc, en la Polonia bajo ocupación zarista, Luxemburgo pasó su vida en los márgenes, luchando contra numerosas adversidades y siempre a contracorriente. De origen judío, con una discapacidad permanente, a los veintiséis años se trasladó a Alemania, donde solo pudo obtener la ciudadanía mediante un matrimonio concertado. Pacifista convencida en la época de la Primera Guerra Mundial, fue encarcelada varias veces por sus ideas. Fue una enemiga ardiente del imperialismo en una nueva y violenta época colonial. Luchó contra la pena de muerte en medio de la barbarie. Sobre todo, era mujer y vivió en mundos habitados exclusivamente por hombres. A menudo era la única presencia femenina tanto en la Universidad de Zúrich, donde obtuvo su doctorado en 1897 con una tesis sobre el desarrollo industrial de Polonia, como entre los líderes del Partido Socialdemócrata Alemán. Fue la primera profesora mujer de la escuela central para la formación de cuadros del partido, cargo que ocupó entre 1907 y 1914, periodo en el que elaboró el proyecto inconcluso de escribir una Introducción a la economía política (1925) y publicó La acumulación del capital (1913).

A estas dificultades se sumaba su espíritu independiente y su autonomía, virtud que a menudo se penaliza incluso en los partidos de izquierda. Con su viva inteligencia, Luxemburgo tuvo la capacidad de elaborar nuevas ideas y de saber defenderlas, sin reverencias sumisas y, de hecho, con una franqueza desarmante, en presencia de figuras del calibre de August Bebel o Karl Kautsky, que habían tenido el privilegio de formarse en contacto directo con Engels. Su objetivo no era repetir las palabras de Marx, sino interpretarlas históricamente y, cuando fuera necesario, desarrollar su análisis. Expresar libremente su opinión y ejercer el derecho a expresar posiciones críticas dentro del partido eran requisitos indispensables para ella. El partido tenía que ser un espacio donde pudieran convivir diferentes posiciones, siempre que sus afiliados compartieran sus principios fundamentales.

En el tema de las formas de organización política y, más específicamente, en el papel del partido, Luxemburgo fue protagonista de otro conflicto violento, esta vez con Lenin. En el texto Un paso adelante, dos pasos atrás (1904), el líder bolchevique defendió las decisiones tomadas en el segundo congreso del Partido Obrero Socialdemócrata Ruso y concibió al partido como un núcleo compacto de revolucionarios profesionales, una vanguardia que debía liderar a las masas. Luxemburgo, en Problemas organizativos de la socialdemocracia rusa (1904) objetó que un partido extremadamente centralizado generaba una dinámica muy peligrosa: “la obediencia ciega de los militantes a la autoridad central”. El partido debía desarrollar la participación social, no reprimirla, “mantener viva la apreciación justa de las formas de lucha”. Marx escribió que “cada paso del movimiento real es más importante que una docena de programas”. Luxemburgo amplió este postulado y afirmó que “los pasos en falso del movimiento obrero real son, históricamente, inconmensurablemente más fructíferos y más preciosos que la infalibilidad del mejor comité central”.

Estaba convencida de que “el socialismo, por su naturaleza, no se puede otorgar desde arriba”. Debía expandir la democracia, no reducirla. Afirmó que se podía “decretar lo negativo, la destrucción, pero no lo positivo, la construcción”. Esta era “tierra virgen” y solo “a partir de la experiencia se podía corregir y abrir nuevos caminos”. La Liga Espartaco, nacida en 1914 tras romper con el Partido Socialdemócrata Alemán, que luego se convertiría en el Partido Comunista Alemán, tomaría el poder solo “mediante la voluntad clara e incuestionable de la gran mayoría de las masas proletarias de toda Alemania”.

Desde la práctica de opciones políticas opuestas, los socialdemócratas y los bolcheviques habían concebido erróneamente la democracia y la revolución como dos procesos mutuamente alternativos. Por el contrario, el corazón de la teoría política de Luxemburgo se centró en su unidad indisoluble. Su legado quedó aplastado precisamente entre estas dos fuerzas: los socialdemócratas, cómplices de su brutal asesinato, ocurrido a los 47 años, a manos de las milicias paramilitares, la combatieron sin piedad por el acento revolucionario de sus reflexiones, mientras que los estalinistas se guardaron de difundir su legado debido al carácter crítico y libertario de su pensamiento.

Cosmopolita, ciudadana de “lo que vendrá”, aseguró sentirse como en casa “en todo el mundo, dondequiera que haya nubes y pájaros y lágrimas humanas”. Apasionada de la botánica y amante de los animales, como se desprende de la lectura de su correspondencia, fue una mujer de extraordinaria sensibilidad, que se conservó intacta a pesar de las amargas experiencias que le reservó la vida. Para la cofundadora de la Liga Espartaco, la lucha de clases no terminaba con el aumento de los salarios. Luxemburgo no quiso ser un mero epígono y su socialismo nunca fue economicista.

Inmersa en los dramas de su tiempo, buscó innovar el marxismo sin cuestionar sus fundamentos. Su intento es una advertencia constante a las fuerzas de izquierda para que no limiten su acción política a la consecución de paliativos suaves y no renuncien a la idea de cambiar el estado de cosas existente. La forma en que vivió, la habilidad con que logró llevar a cabo su elaboración teórica y la agitación social al mismo tiempo son una lección extraordinaria, inalterada por el tiempo, que habla a la nueva generación de militantes que han optado por continuar las múltiples batallas que Luxemburgo emprendió.

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Comitè De Redacció, Catarsi

Des de Catarsi Magazín us desitgem feliç Sant Jordi, i us fem una breu selecció de llibres per gaudir especialment durant la diada, però també la resta de l’any. En la nostra tria hi hem escollit obres relatives a les qüestions que abordem a la revista: feminisme, ecologisme, perspectives socialistes i militants per fer de la literatura (i de la cultura en general) una eina de transformació social i d’emancipació, també i especialment en el context català.

Una cambra pròpia
El clàssic de Virginia Woolf torna amb una edició renovada de la mà de La Temerària editorial i amb traducció d’Helena Valentí. Una obra cabdal de la literatura feminista, on Woolf reclama la necessitat per part de les dones de fer-se el seu espai com a escriptores: “La dona que es proposa escriure novel·les ha de comptar amb uns diners i una cambra pròpia; i això, reconeixeu-ho, deixa sense resoldre els grans problemes de l’autèntica manera de ser de la dona i els trets distintius de la novel·la.” A Una cambra pròpia (La Temerària, 2021) Woolf fa una denúncia epocal dels biaixos de la societat patriarcal i de les dificultats de l’accés a la cultura per part de les dones del tot aplicable als nostres temps.

Què fer davant del canvi climàtic?
La crisi climàtica és una realitat els efectes de la qual es faran més i més notoris en les nostres societats. Sovint, els mitjans de comunicació reprodueixen dades relatives als increments de temperatura, augment del nivell del mar, sequeres, huracans i demés fenòmens. Davant tant de catastrofisme, la nostra acció quotidiana sembla grotesca, insignificant i del tot anecdòtica, tanmateix, prendre consciència del paper depredador del capitalisme i l’anarquia inherent en el seu desplegament com a sistema econòmic i social és anar a les arrels de la crisi climàtica i ens dona un context en el qual inserir la nostra pràctica quotidiana.El recent llibre d’Andreu Escrivà, I ara jo què faig? (Sembra Llibres, 2021) és un manual, però també una guia davant les contradiccions del dia a dia per contribuir en el canvi social que requereix la supervivència del nostre planeta, i de nosaltres com espècie en ell.

Un Marx per descobrir
Allò que coneixem més sobre el marxisme sovint són els seus tòpics desqualificadors. Fins i tot dins de l’esquerra, Marx passa sovint com un senyor que no es va poder abstraure del racisme del seu temps, que considerava el capitalisme una fase del tot necessària per a l’assoliment d’un estadi social superior en la forma del socialisme i que, per tant, justificava així l’existència de les colònies. Res més lluny de la realitat, l’obra del filòsof renà fou d’una extensió poc igualada per cap dels seus contemporanis. Amb la recent publicació de les seves obres completes, a dia d’avui encara ens manca temps per estudiar del tot els posicionaments de Marx sobre l’enorme quantitat de temes que seguia amb viu interès.

A L’últim Marx (Tigre de Paper, 2021), Marcello Musto s’endinsa en els escrits epistolars d’un Marx ja vell i madur que mostra una imatge molt diferent a la de les caricatures a les que el van reduir els seus epifenòmens. Crític amb plantejaments propis i amb una lucidesa que no perd en l’anàlisi de fenòmens com ara el context polític a Rússia i l’ascens de la socialdemocràcia a Alemanya, l’últim Marx ens mostra la dimensió emancipadora del pensador que dota de

A 150 anys de la Comuna
Enguany es compleixen 150 anys de la Comuna de París, l’esdeveniment que va sacsejar Europa a finals del segle XIX i del qual Marx va dir que era un exemple concret d’exercici de la dictadura del proletariat. Proliferen les obres historiogràfiques sobre les causes i els esdeveniments que van deixar aquesta fita per la posteritat, però també és possible una aproximació literària. En la novel·la d’Hervé Le Corre Sota les flames (Bromera, 2021) s’hi narra sota amb suspens els darrers dies de la Comuna a través de dues de les seves protagonistes. Una acció trepidant a contracorrent com la que van viure els darrers communards enmig d’una ciutat assetjada.

És possible novel·lar la independència?
Més enllà de les novetats, sempre és un bon moment per recuperar aquelles novel·les que, des de la política-ficció, han volgut imaginar com seria una Catalunya independent.

A A reveure Espanya, Jordi Cussà (Edicions Albí, 2010) literaturitzava fa una dècada com un 23 d’abril del 2018 es proclamava unilateralment la Independència al Parlament de Catalunya, i ho combinava amb un seguit de interrogants que en aquell moment eren del tot profètics. Novel·la imprescindible doncs, en aquest camí nostre cap a l’alliberament del país, sovint tan frustrat i tortuós, que ens recorda que per voler-nos lliures, abans cal estar convençuts de què serà possible.

I una de regal! Aprofitem la seva reedició per recomanar amb incandescent entusiasme Jo només il·lumino la Catalana Terra (Males herbes, 2021). Un recull sorprenentment bo de breus assaigs del mític blog Jo només follo a pèl, on l’enigmàtic autor Valero Sanmartí, com un semidéu venjatiu, brega amb els elements culturals que, segons ell, fan del poble català un col·lectiu humà mesellot i poc predisposat a l’èpica. Un recull imprescindible i un retrat (extraordinàriament) cert de la catalanor en l’era de la potmodernitat líquida (i sòlida, i gasosa) i en per què coi cal començar a qüestionar-la (sí, també amb humor) per sortir de la nostrada gàbia melancòlica del panxacontentisme.

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Die Pariser Kommune als mögliche Alternative

Die Bourgeoisie Frankreichs ist immer mit allem davongekom¬men. Seit der Revolution von 1789 war sie die einzige, die in Zei¬ten der Prosperität reich wurden, während die Arbeiterklasse regelmäßig die Hauptlast der anfälligen Krisen zu tragen hatte. Doch die Ausrufung der Dritten Republik eröffnete neue Hori¬zonte und bot eine Chance für einen Richtungswechsel. Napoleon III. wurde nach der Niederlage der französischen Truppen in der Schlacht bei Sedan am 4. September 1870 von den preußischen Truppen gefangen genommen. Im darauffolgenden Januar, nach einer viermonatigen Belagerung von Paris, erreichte Otto von Bismarck die Kapitulation der Franzosen und konnte im Zuge der Verhandlungen über einen Waffenstillstand harte Bedingungen durchsetzen. In Frankreich fanden Wahlen statt und Adolphe Thiers wurde, unterstützt von einer großen Mehr¬heit der Legitimisten und Orleanisten im Parlament, zum »Chef der Exekutive« ernannt. In der Hauptstadt Paris jedoch, wo die Unzufriedenheit der Bevölkerung größer war als anderswo, ge¬wannen radikale republikanische und sozialistische Kräfte die Oberhand. Die Aussicht auf eine rechte Regierung, die die so¬zialen Ungerechtigkeiten beibehalten, die Last des Krieges auf die ärmeren Klassen abwälzen und die Stadt Paris entwaffnen wollte, löste am 18. März eine Revolution aus. Thiers und seine Armee hatten keine andere Wahl, als sich nach Versailles zu¬rückzuziehen.

Der Kampf und die Regierung

Um sich eine demokratische Legitimation zu sichern, beschlos¬sen die Aufständischen, sofort freie Wahlen abzuhalten. Am 26. März billigte eine überwältigende Mehrheit (190.000 Stimmen gegen 40.000) den Aufstand, und 70 der 85 gewählten Abge¬ordneten erklärten ihre Unterstützung für die Revolution. Die 15 gemäßigten Vertreter der parti des maires, einer Gruppe, die sich aus den ehemaligen Chefs bestimmter Stadtteile zusammensetzte, traten sofort zurück und nahmen nicht am Rat der Kommune teil; ihnen schlossen sich kurz darauf vier Radikale an. Die verbleibenden 66 Mitglieder – wegen der doppelten po-litischen Zugehörigkeit nicht immer leicht zu unterscheiden – repräsentierten ein breites Spektrum von Positionen. Unter ih¬nen waren etwa 20 neojakobinische Republikaner (darunter die bekannten Charles Delescluze und Félix Pyat), ein Dutzend An¬hänger von Auguste Blanqui, 17 Mitglieder der Internationalen Arbeiterassoziation (sowohl mutualistische Parteigänger von Pierre-Joseph Proudhon als auch Kollektivisten, die mit Karl Marx verbunden waren, und oft miteinander im Streit lagen) und ein paar Unabhängige. Die meisten Führer der Kommune waren Arbeiter oder anerkannte Vertreter der Arbeiterklasse, 14 stammten aus der Nationalgarde. Tatsächlich war es das Zent¬ralkomitee der Nationalgarde, das die Macht in die Hände der Kommune legte. Dies war, wie sich herausstellte, das Vorspiel zu einer langen Reihe von Unstimmigkeiten und Konflikten zwi¬schen den beiden Gremien.
Am 28. März versammelte sich eine große Anzahl von Bür¬gerinnen und Bürgern in der Nähe des Hôtel de Ville, um die neue Versammlung, die nun offiziell den Namen Pariser Kom¬mune trug, zu feiern. Obwohl sie nicht länger als 72 Tage Be¬stand haben sollte, war die Pariser Kommune das wichtigste po¬litische Ereignis in der Geschichte der Arbeiterbewegung des 19. Jahrhunderts. Sie gab der von monatelangen Entbehrungen er-schöpften Bevölkerung neue Hoffnung. In den Vierteln von Pa¬ris bildeten sich Komitees und Gruppen, die die Kommune un¬terstützten, und an jeder Ecke der Metropole gab es Initiativen, um Solidarität mit der Kommune zu bekunden und den Auf¬bau einer neuen Welt zu planen. Montmartre wurde »Zitadelle der Freiheit« getauft. Weit verbreitet war der Wunsch, mit an¬deren zu teilen. Militante wie Louise Michel verkörperten den Geist der Selbstverleugnung. Victor Hugo schrieb über sie: Sie »tat, was große wilde Seelen tun. (…) Sie verherrlichte die Ge¬schlagenen und Geknechteten.« Aber es war nicht der Impuls eines Führers oder einer Handvoll charismatischer Personen, der die Kommune ins Leben rief. Sie war ein kollektives Ereig-nis. Frauen und Männer schlossen sich freiwillig zusammen, um ein gemeinsames Projekt der Befreiung zu verfolgen. Die Selbst¬verwaltung wurde nicht als Utopie gesehen und die Befreiung aus eigener Kraft stand im Zentrum.

Die Transformation der politischen Macht

Zwei der ersten Notverordnungen, die die grassierende Armut eindämmen sollten, waren das Einfrieren der Mietzahlungen und das Verbot des Verkaufs von Gegenständen im Wert von unter 20 Franken in Pfandhäusern. Zur Begründung hieße es, dass »das Eigentum seinen gerechten Anteil an Opfern bringen solle«. Neun Kommissionen auf kollegialer Basis ersetzten die Ministerien für Krieg, Finanzen, allgemeine Sicherheit, Bildung, Subsistenz, Arbeit und Handel, Außenbeziehungen und öffent¬lichen Dienst. Wenig später wurde für jedes dieser Ressorts ein Delegierter der Kommune als Leiter ernannt.
Am 19. April, drei Tage nach Wahlen zur Besetzung von 31 Sitzen der Kommune, die frei geworden waren, verabschiedete die Kommune eine Erklärung an das französische Volk. Diese
Erklärung enthielt die »absolute Garantie der individuellen Frei¬heit, der Gewissensfreiheit und der Freiheit der Arbeit«. Den Bürgerinnen und Bürgern wurde das Recht auf »die ständige Einmischung in die kommunalen Angelegenheiten« gesichert. Der Konflikt zwischen Paris und Versailles, so wurde in der Er-klärung bekräftigt, »kann nicht durch illusorische Kompromisse beendet werden«. Das Volk habe das Recht und die »Pflicht zu kämpfen und zu siegen!« Noch bedeutsamer als dieser Text – eine etwas ambivalente Synthese, um Spannungen zwischen den verschiedenen politischen Strömungen zu vermeiden – waren die konkreten Aktionen, mit denen die Kommunarden für eine grundlegende Umgestaltung der politischen Ordnung kämpf¬ten. Eine Reihe von Reformen betraf nicht nur einzelne Ver¬fahrensweisen, sondern das eigentliche Wesen der politischen Verwaltung. Die Kommune sah die Abberufung gewählter Ab¬geordneter und die Kontrolle ihrer Handlungen durch impera¬tive Mandate vor, auch wenn dies keineswegs ausreichte, um die komplexe Frage der politischen Repräsentation zu regeln. Magistrate und andere öffentliche Ämter, die alle einer stän¬digen Kontrolle und der möglichen Abberufung der gewählten Vertreter unterlagen, sollten nicht wie bisher willkürlich ver¬geben, sondern auf der Basis eines offenen Wettbewerbs oder durch Wahlen entschieden werden. Damit sollte verhindert wer¬den, dass der öffentliche Raum zur Domäne von Berufspoli-tikern wird. Politische Entscheidungen dürften nicht kleinen Gruppen von Funktionären und Technikern überlassen, son¬dern müssten vom Volk getroffen werden. Armee und Polizei¬kräfte sollten keine von der Gesellschaft abgetrennten Institu¬tionen mehr sein. Es wurde die strikte Trennung von Staat und Kirche verfügt.
Die Vision des politischen Wandels beschränkte sich jedoch nicht auf die genannten Maßnahmen, sondern ging weit tiefer und war radikaler. Die Übertragung der Macht in die Hände des Volkes war notwendig, um die Bürokratie drastisch zu reduzie¬ren. Die soziale Sphäre sollte Vorrang vor der politischen haben – wie schon Henri de Saint-Simon gefordert hatte. Politik sollte aufhören, eine spezialisierte Aufgabe zu sein, sondern schritt¬weise in die Aktivität der Zivilgesellschaft selbst inte griert wer¬den. Die Gesellschaft würde damit Funktionen zurückerobern, die an den Staat übertragen worden waren. Ziel war es, nicht nur das bestehende System von Klassenherrschaft zu stürzen, sondern auch das Ende der Klassenherrschaft als solcher her¬beizuführen. All dies hätte die Vision der Kommune von der Re¬publik als Zusammenschluss freier, wahrhaft demokratischer Assoziationen erfüllt, die die Emanzipation aller ihrer Teile för¬dert. Es ging darum, die Selbstverwaltung der Produzenten her¬beizuführen.

Die Priorität der Sozialreformen

Die Kommune war der Meinung, dass soziale Reformen noch entscheidender waren als politische Veränderungen. Sie sah in diesen Reformen ihre eigentliche Daseinsberechtigung, den Maßstab der Treue zu ihren Gründungsprinzipien und das, was sie grundsätzlich von den vorangegangenen Revolutionen von 1789 und 1848 unterschied.
Die Kommune verabschiedete eine ganze Reihe von Ma߬nahmen, die einen klaren Klassencharakter trugen. Die Fris¬ten für die Rückzahlung von Schulden wurden um drei Jahre verlängert, ohne dass dabei zusätzliche Zinsen hätten gezahlt werden müssen. Zwangsräumungen wegen ausstehender Miet¬zahlungen wurden ausgesetzt, und ein Dekret erlaubte die Be¬schlagnahmung von leerstehenden Wohnungen für Obdach¬lose. Es gab Pläne, den Arbeitstag von zehn auf acht Stunden zu verkürzen. Die weitverbreitete Praxis, den Arbeitern fiktive Bußgelder aufzuerlegen, nur um den Lohn zu drücken, wurde unter Androhung von Strafen verboten, und die Mindestlöhne wurden auf ein Niveau erhöht, das ein würdiges Leben ermög¬lichen sollte. Es wurde so viel wie möglich getan, um die Ver¬sorgung der Bevölkerung von Paris mit Lebensmitteln zu stei¬gern und die Preise zu senken. Die Nachtarbeit in Bäckereien wurde verboten und eine Reihe von städtischen Fleischläden eröffnet. Soziale Hilfen verschiedener Art wurden auf sozial schwächere Bevölkerungsgruppen ausgedehnt. So gab es zum Beispiel Lebensmitteltafeln für alleinstehende Frauen und Kin¬der. Zudem wurde diskutiert, wie die Diskriminierung von un-
ehelichen gegenüber in der Ehe geborenen Kindern beendet werden könne.
Die Pariser Kommunarden gingen davon aus, dass Bildung ein wesentlicher Faktor für die individuelle Emanzipation und Bedingung für jede ernsthafte soziale und politische Verände¬rung sei. Der Schulbesuch sollte sowohl für Mädchen als auch für Jungen kostenlos und verpflichtend werden, wobei der Religi-onsunterricht einem weltlichen Unterricht nach rationalen, wis¬senschaftlichen Grundsätzen weichen sollte. Speziell eingesetzte Kommissionen und die Presse lieferten viele überzeugende Ar¬gumente für Investitionen in die Bildung von Frauen. Damit das Bildungssystem zu einem wahrhaft »öffentlichen Dienst« wer¬den könne, müsse die Bildung »Kindern beiderlei Geschlechts« gleiche Chancen bieten.
Außerdem sollten »Unterscheidungen aufgrund von Rasse, Nationalität, Religion oder sozialer Stellung« verboten werden. Erste praktische Initiativen begleiteten solche Proklamationen, und in mehr als einem Stadtteil betraten Tausende von Arbei¬terkindern zum ersten Mal ein Schulgebäude und erhielten kos¬tenloses Unterrichtsmaterial.
Die Kommune ergriff Maßnahmen mit sozialistischem Cha¬rakter. Sie verfügte, dass Werkstätten, die von aus der Stadt ge¬flohenen Arbeitgebern aufgegeben worden waren, an Genos¬senschaften der Arbeiter übergeben werden. Im Falle, dass die früheren Eigentümer zurückkehrten, sollten sie entschädigt werden. Die Theater und Museen wurden für alle unentgeltlich zugänglich und dem Verband der Pariser Künstler unterstellt, dem der Maler und unermüdliche Kämpfer Gustave Courbet vorstand. Sie sollten durch diesen Verband kollektiv verwaltet werden. Diesem Gremium gehörten etwa 300 Bildhauer, Archi¬tekten, Lithographen und Maler (darunter Édouard Manet) an. Das Beispiel wurde durch die Gründung einer »Künstlerverei¬nigung« aufgegriffen, zu dem sich Schauspieler und Personen aus der Opernwelt zusammenschlossen.
All diese Maßnahmen und Bestimmungen wurden in der er¬staunlichen Zeitspanne von nur 54 Tagen eingeführt, und dies in einer Stadt, die noch unter den Auswirkungen des Deutsch-Französischen Krieges litt. Die Kommune konnte ihre Arbeit nur zwischen dem 29. März und dem 21. Mai verrichten, während sie zugleich einen heldenhaften Widerstand gegen die Angriffe der Truppen aus Versailles leistete, ein Widerstand, der enorme menschliche Energie und große finanzielle Mittel erforderte. Da der Kommune keine Zwangsmittel zur Verfügung standen, wur¬den viele ihrer Dekrete im weiten Stadtgebiet nicht einheitlich durchgesetzt. Sie waren durch den Drang zur Neugestaltung der gesellschaftlichen Verhältnisse geprägt und wiesen den Weg zu weiteren möglichen Veränderungen.

Kollektiver und feministischer Kampf

Die Kommune umfasste viel mehr als die von ihrer gesetzgeben¬den Versammlung beschlossenen Aktionen. Sie strebte danach, den städtischen Raum neu zu gestalten, wie der Beschluss zum Abriss der Säule von Vendôme zeigte, die als Monument der Bar¬barei und verwerfliches Symbol des Krieges galt. Es wurde die Säkularisierung einer Reihe von Kirchen verfügt, indem sie der Nutzung durch die Gemeinden überlassen wurden. Wenn es der Kommune gelang, unter den sehr angespannten Bedingungen durchzuhalten, dann dank einer außergewöhnlichen Massen¬beteiligung und einem ausgeprägten Geist gegenseitiger Hilfe. Eine besondere Rolle spielten die revolutionären Klubs, die in fast jedem Bezirk von Paris entstanden. Es gab mindestens 28 von ihnen. Sie stellten eines der bemerkenswertesten Beispiele für die spontane Mobilisierung von unten dar. Jeden Abend ge¬öffnet, boten sie den Bürgerinnen und Bürgern die Möglichkeit, sich nach der Arbeit zu treffen, um frei über die soziale und poli¬tische Situation zu diskutieren, zu überprüfen, was ihre Vertre¬ter erreicht hatten, und alternative Wege zur Lösung der alltäg¬lichen Probleme vorzuschlagen. Es waren Basisvereinigungen, die die Bildung und den Ausdruck von Volkssouveränität sowie die Schaffung echter Räume der Schwesternschaft und Brüder¬lichkeit begünstigten. Hier konnten jede und jeder die begeis-ternde Erfahrung gewinnen, was es heißt, Kontrolle über das ei¬gene Schicksal zu gewinnen.
Der emanzipatorische Weg der Kommune hatte keinen Platz für nationale Diskriminierung. Die Bürgerschaft der Kommune erstreckte sich auf alle, die sich für ihre Entwicklung einsetzten. Ausländer genossen die gleichen sozialen Rechte wie Franzosen. Das Prinzip der Gleichheit zeigte sich in der prominenten Rolle, die die 3.000 in der Kommune aktiven Ausländer spielten. Leo Frankel, ein ungarisches Mitglied der International Working Men’s Association, wurde nicht nur in den Rat der Kommune gewählt, sondern diente ihr als »Arbeitsminister« – eine ihrer Schlüsselpositionen. Die Polen Jaroslaw Dombrowski und Wa-lery Wroblewski standen als angesehene Generäle an der Spitze der Nationalgarde.
Frauen spielten, obwohl sie noch kein Wahlrecht erhalten hatten und auch nicht im Rat der Kommune sitzen durften, eine wesentliche Rolle. Sie formulierten wichtige Positionen der Kritik an der Gesellschaftsordnung. In vielen Fällen über¬schritten sie die Normen der bürgerlichen Gesellschaft und behaupteten eine neue Identität in Opposition zu den Werten der patriarchalen Familie, indem sie sich über die häusliche Privatsphäre hinaus in die öffentliche Sphäre einbrachten. Die Frauenunion zur Verteidigung von Paris und zur Versorgung der Verwundeten, deren Entstehung maßgeblich der unermüd¬lichen Aktivität des Mitglieds der Ersten Internationale, Eli¬sabeth Dmitrieff, zu verdanken war, spielte eine wesentliche Rolle dabei, die wichtigsten sozialen Kämpfe zu identifizieren. Frauen erreichten die Schließung von Bordellen, erkämpften die Gleichstellung von Lehrerinnen und Lehrern, prägten die Parole »Gleicher Lohn für gleiche Arbeit«, forderten Gleich¬berechtigung in der Ehe und die Anerkennung freier Gewerk¬schaften. Sie setzten sich für ausschließlich weibliche Kam¬mern in den Gewerkschaften ein.
Als sich Mitte Mai die militärische Lage zuspitzte und die Truppen von Versailles vor den Toren von Paris standen, grif¬fen die Frauen zu den Waffen und bildeten ein eigenes Batail¬lon. Viele kamen bei den Kämpfen auf den Barrikaden um. Die bürgerliche Propaganda setzte sie den bösartigsten Angriffen aus, nannte sie les pétroleuses und beschuldigte sie, während der Straßenkämpfe die Stadt in Brand gesteckt zu haben.

Zentralisieren oder dezentralisieren?

Die Kommunarden strebten danach, eine wahre Demokratie zu errichten. Dies war ein ehrgeiziges und schwieriges Projekt. Die Volkssouveränität erforderte die Beteiligung der größtmög¬lichen Anzahl von Bürgerinnen und Bürgern. Ab Ende März schossen in Paris verschiedenste demokratische Strukturen wie Pilze aus dem Boden: zentrale Kommissionen, lokale Unter¬ausschüsse, revolutionäre Clubs und Soldatenbataillone. Sie flankierten das ohnehin schon komplexe Duopol von Rat der Kommune und Zentralkomitee der Nationalgarde. Das Zent¬ralkomitee der Nationalgarde von Paris hatte die militärische Kontrolle behalten und agierte oft als veritable Gegenmacht zum Rat. Obwohl die direkte Beteiligung der Bevölkerung eine wichtige Garantie für die Demokratie war, erschwerte die Viel¬zahl der beteiligten Instanzen die Entscheidungsprozesse und machte die Umsetzung der Dekrete der Kommune zu einer lang¬wierigen Angelegenheit.
Das Problem des Verhältnisses zwischen der Zentralgewalt und den lokalen Gremien führte zu einer Reihe von chaoti¬schen, zeitweise auch lähmenden Situationen. Das empfind¬liche Gleichgewicht geriet völlig aus den Fugen, als Jules Miot angesichts des Kriegsnotstands, der Disziplinlosigkeit inner¬halb der Nationalgarde und der zunehmenden Ineffizienz der Regierung die Schaffung eines fünfköpfigen Komitees für öf¬fentliche Sicherheit vorschlug. Als Vorbild galt ihm das dikta¬torische Modell des Wohlfahrtsausschusses unter Vorsitz von Maximilien Robespierre im Jahr 1793. Der Vorschlag wurde am 1. Mai mit einer Mehrheit von 45 zu 23 Stimmen angenommen. Dies erwies sich als dramatischer Fehler, der den Anfang vom Ende des neuartigen politischen Experiments markierte und die Kommune in zwei gegnerische Blöcke spaltete. Der erste Block, der sich aus Neojakobinern und Blanquisten zusammensetzte, neigte zur Machtkonzentration und letztlich zum Primat des Po¬litischen über das Soziale. Der zweite Block, zu dem die Mehr¬heit der Mitglieder der Internationalen Arbeiter-Assoziation ge¬hörte, bestand auf dem Vorrang der sozialen Sphäre gegenüber der politischen. Seine Vertreter hielten eine Gewaltenteilung für notwendig und bestanden darauf, dass die Republik niemals die politischen Freiheiten infrage stellen dürfe. Koordiniert von dem unermüdlichen Eugène Varlin, lehnten sie den autoritären Kurs scharf ab und beteiligte sich nicht an den Wahlen zum Komi¬tee für öffentliche Sicherheit. Nach ihrer Auffassung würde die Zentralisierung der Macht in den Händen einiger weniger Per¬sonen den Gründungspostulaten der Kommune eklatant wider¬sprechen. Die ihnen angehörigen Vertreter würden nicht über die Rechte des Souveräns verfügen. Diese Souveränität gehöre dem Volk, und dieses hätte kein Recht, sie an ein bestimmtes Organ abzutreten. Als die Minderheit am 21. Mai wieder an ei¬ner Sitzung des Rates der Kommune teilnahm, wurde ein neuer Versuch unternommen, Einigkeit in ihren Reihen herzustellen. Aber es war bereits zu spät.

Die Kommune als Synonym für Revolution

Die Pariser Kommune wurde von den Armeen der Versailler Regierung brutal niedergeschlagen. Während der semaine sanglante, der Blutwoche zwischen dem 21. und 28. Mai, wur¬den insgesamt 17.000 bis 25.000 Bürgerinnen und Bürger abgeschlachtet. Die letzten Kampfhandlungen fanden entlang der Mauern des Friedhofs Père Lachaise statt. Der junge Ar¬thur Rimbaud beschrieb die französische Hauptstadt als »eine trauernde, fast tote Stadt«. Es war das blutigste Massaker in der Geschichte Frankreichs. Nur 6.000 gelang die Flucht ins Exil nach England, Belgien und in die Schweiz. Die Zahl der Gefangenen betrug über 43.000. Hundert von ihnen wurden nach Schnellverfahren vor Kriegsgerichten hingerichtet, wei¬tere 13.500 wurden zu Gefängnis oder Zwangsarbeit verurteilt oder in entlegene Gebiete wie Neukaledonien deportiert. Ei¬nige solidarisierten sich mit den algerischen Anführern des an¬tikolonialen Mokrani-Aufstands, der zur gleichen Zeit wie die Kommune ausgebrochen war und von französischen Truppen gleichfalls blutig niedergeschlagen wurde. Sie teilten das Schick¬sal der Aufständischen in der Kolonie.
Das Gespenst der Kommune verschärfte die antisozialisti¬sche Repression in ganz Europa. Die konservative und liberale Presse überging die beispiellose Gewalt des Thiers-Staates, be¬schuldigte die Kommunarden der schlimmsten Verbrechen und drückte große Erleichterung über die Wiederherstellung der »natürlichen Ordnung« und der bürgerlichen Legalität sowie Zufriedenheit über den Triumph der »Zivilisation« über die An¬archie aus. Diejenigen, die es gewagt hatten, die herrschende Au¬torität zu verletzen und die Privilegien der herrschenden Klasse anzugreifen, wurden auf exemplarische Weise bestraft. Frauen wurden wieder als minderwertig behandelt, und Arbeiter mit schwieligen Händen, die sich dreist angemaßt hatten, zu regie¬ren, sollten nun wieder das tun, was die Herrschenden als de¬ren wahre Pflichten ansahen.
Und doch gab der Aufstand in Paris den Kämpfen der Arbei¬ter Kraft und drängte sie in radikalere Richtungen. Am Morgen nach der Niederlage schrieb Eugène Pottier das, was zur be¬rühmtesten Hymne der Arbeiterbewegung werden sollte: »Völ¬ker, hört die Signale! Auf zum letzten Gefecht! Die Internatio¬nale erkämpft das Menschenrecht.« Paris hatte gezeigt, dass es darauf ankommt, eine vom Kapitalismus radikal verschiedene Gesellschaft aufzubauen. Auch wenn auf den kurzen Frühling der Kommune für ihre Kämpferinnen und Kämpfer keine »Zeit der Kirschen« (so der Titel eines berühmten Verses des Kom-munarden Jean-Baptiste Clément) folgte, verkörperte die Kom¬mune fortan die Idee der sozialpolitischen Umgestaltung und ihrer praktischen Umsetzung. Sie wurde zum Synonym für den Begriff der Revolution selbst, für eine ontologische Erfahrung der Arbeiterklasse. In »Der Bürgerkrieg in Frankreich« stellte Karl Marx fest, dass die Pariser Arbeiter zur »Vorhut des gan¬zen modernen Proletariats« geworden seien. Die Pariser Kom¬mune veränderte das Bewusstsein der Arbeiterinnen und Ar¬beiter und ihre kollektive Wahrnehmung. Mit einem Abstand von 150 Jahren weht die rote Fahne der Pariser Kommune auch heute noch und erinnert uns daran, dass eine Alternative immer möglich ist. Vive la Commune!

 

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L’alternativa possibile della Comune di Parigi

Il 18 marzo del 1871 scoppiò in Francia una nuova rivoluzione che mise in pratica la democrazia diretta e l’autogoverno dei produttori. Quell’esperienza indica ancora come si può costruire una società radicalmente diversa da quella capitalista.
I borghesi avevano sempre ottenuto tutto. Sin dalla rivoluzione del 1789, erano stati i soli ad arricchirsi nei periodi di prosperità, mentre la classe lavoratrice aveva dovuto regolarmente sopportare il costo delle crisi. La proclamazione della Terza Repubblica aprì nuovi scenari e offrì l’occasione per ribaltare questo corso. Napoleone III era stato sconfitto e catturato dai tedeschi, a Sedan, il 4 settembre 1870. Nel gennaio dell’anno seguente, la resa di Parigi, che era stata assediata per oltre quattro mesi, aveva costretto i francesi ad accettare le condizioni imposte da Otto von Bismarck. Ne seguì un armistizio che permise lo svolgimento di elezioni e la successiva nomina di Adolphe Thiers a capo del potere esecutivo, con il sostegno di una vasta maggioranza legittimista e orleanista. Nella capitale, però, in controtendenza con il resto del paese, lo schieramento progressista-repubblicano era risultato vincente con una schiacciante maggioranza e il malcontento popolare era più esteso che altrove. La prospettiva di un esecutivo che avrebbe lasciato immutate tutte le ingiustizie sociali, che voleva disarmare la città ed era intenzionato a far ricadere il prezzo della guerra sulle fasce meno abbienti, scatenò la ribellione. Il 18 marzo scoppiò una nuova rivoluzione; Thiers e la sua armata dovettero riparare a Versailles.

Di lotta e di governo

Gli insorti decisero di indire subito libere elezioni, per assicurare all’insurrezione la legittimità democratica. Il 26 marzo, una schiacciante maggioranza (190.000 voti contro 40.000) approvò le ragioni della rivolta e 70 degli 85 eletti si dichiararono a favore della rivoluzione. I 15 rappresentanti moderati del cosiddetto «parti de maires», un gruppo composto da ex-presidenti di alcuni arrondissement, si dimisero immediatamente e non entrarono a far parte del consiglio della Comune. Furono seguiti poco dopo da quattro radicali. I restanti 66 membri – non facilmente distinguibili per le loro doppie appartenenze politiche – rappresentavano posizioni molto variegate. Tra essi vi erano una ventina di repubblicani neo-giacobini (inclusi gli autorevoli Charles Delescluze e Felix Pyat), una dozzina di proseliti di Auguste Blanqui, 17 appartenenti dell’Associazione Internazionale dei Lavoratori (al cui interno erano presenti sia i mutualisti seguaci di Pierre-Joseph Proudhon che i collettivisti legati a Karl Marx, spesso in contrasto tra loro) e un paio di indipendenti. La maggioranza dei componenti della Comune erano operai o rappresentanti riconosciuti della classe lavoratrice. In 14 provenivano dalla Guardia Nazionale. Fu proprio il comitato centrale di quest’ultima a consegnare il potere nelle mani della Comune, anche se questo atto fu l’inizio di una lunga serie di contraddizioni e conflitti tra le due entità.

Il 28 marzo una grande massa di cittadini si riunì nei pressi dell’Hôtel de Ville e salutò festante l’insediamento della nuova assemblea che prese ufficialmente il nome di Comune di Parigi. Anche se resistette soltanto 72 giorni, fu il più importante evento politico della storia del movimento operaio del XIX secolo. La Comune fece rinascere la speranza in una popolazione stremata da mesi di stenti. Nei quartieri sorsero comitati e gruppi in suo sostegno. In ogni angolo della metropoli, si moltiplicarono iniziative di solidarietà e piani per la costruzione di un mondo nuovo. Montmartre fu ribattezzata «la cittadella della libertà». Uno dei sentimenti predominanti fu il desiderio di condividere. Militanti come Louise Michel funsero da esempio per il loro spirito di abnegazione – Victor Hugo scrisse di lei: «facevi ciò che fanno le grandi anime folli. Glorificavi coloro che vengono schiacciati e sottomessi». Tuttavia, la Comune non visse per impulso di un leader o di poche figure carismatiche. Anzi, la sua principale caratteristica fu la sua dimensione spiccatamente collettiva. Donne e uomini si associarono volontariamente per un progetto comune di liberazione. L’autogestione non fu più considerata un’utopia. L’autoemancipazione venne ritenuta imprescindibile.

La trasformazione del potere politico

Tra i primi decreti di emergenza emanati per arginare la dilagante povertà vi furono il blocco del pagamento degli affitti (era giusto che «la proprietà facesse la sua parte di sacrifici») e la sospensione della vendita degli oggetti – per un valore non superiore ai 20 franchi – che si trovavano presso il monte di pietà. Vennero anche istituite nove commissioni collegiali che avrebbero dovuto sostituire i ministeri esistenti: guerra, finanze, sicurezza generale, educazione, sussistenza, giustizia, lavoro e scambio, relazioni estere, servizi pubblici. In seguito, venne nominato un delegato alla direzione di ognuna di esse.
Il 19 aprile, tre giorni dopo le elezioni suppletive a seguito delle quali fu possibile sostituire 31 seggi rimasti quasi subito vacanti, la Comune redasse la Dichiarazione al popolo francese, all’interno della quale furono conclamati «la garanzia assoluta della libertà individuale, della libertà di coscienza e della libertà di lavoro» e «l’intervento permanente dei cittadini nelle vicende comunali». Venne affermato che il conflitto tra Parigi e Versailles «non poteva terminare con illusori compromessi» e che il popolo aveva «il dovere di lottare e vincere!». Ben più significativi dei contenuti di questo testo – sintesi alquanto ambigua per evitare tensioni tra le diverse tendenze politiche – furono gli atti concreti attraverso i quali i militanti della Comune si batterono per una trasformazione totale del potere politico. Essi avviarono un insieme di riforme che miravano a mutare profondamente non solo le modalità con le quali la politica veniva amministrata, ma la sua stessa natura. La democrazia diretta della Comune prevedeva la revocabilità degli eletti e il controllo del loro operato attraverso il vincolo di mandato (una misura insufficiente a dirimere la complessa questione della rappresentanza politica). I magistrati e le altre cariche pubbliche – anch’essi assoggettati a controllo permanente e alla possibilità di revoca – non sarebbero stati designati arbitrariamente, come in passato, ma nominati a seguito di concorso o di elezioni trasparenti. Occorreva impedire la professionalizzazione della sfera pubblica. Le decisioni politiche non spettavano a gruppi ristretti di funzionari e tecnici, ma dovevano essere prese dal popolo. Eserciti e forze di polizia non sarebbero più state istituzioni separate dal corpo della società. La separazione tra Stato e chiesa fu reputata una necessità irrinunciabile.
Il cambiamento politico non poteva, però, esaurirsi con l’adozione di queste misure. Doveva intervenire ben più alla radice. Bisognava ridurre drasticamente la burocrazia trasferendo l’esercizio del potere nelle mani del popolo. La sfera sociale doveva prevalere su quella politica e quest’ultima – come aveva già sostenuto Henri de Saint-Simon – non sarebbe più esistita come funzione specializzata, poiché sarebbe stata progressivamente assimilata dalle attività della società civile. Il corpo sociale si sarebbe reimpossessato di funzioni che erano state trasferite allo Stato. Abbattere il dominio di classe esistente non sarebbe stato sufficiente; occorreva estinguere il dominio di classe in quanto tale. Tutto ciò avrebbe consentito la realizzazione del disegno auspicato dai comunardi: una repubblica costituita dall’unione di libere associazioni veramente democratiche che sarebbero divenute promotrici dell’emancipazione di tutte le sue componenti. Era l’autogoverno dei produttori.

La priorità delle riforme sociali

La Comune riteneva che le riforme sociali fossero ancor più rilevanti dei rivolgimenti dell’ordine politico. Esse rappresentavano la sua ragion d’essere, il termometro attraverso il quale misurare la fedeltà ai princìpi per i quali era sorta, l’elemento di maggiore distinzione rispetto alle rivoluzioni che l’avevano preceduta nel 1789 e nel 1848. La Comune ratificò più di un provvedimento dal chiaro connotato di classe. Le scadenze dei debiti vennero procrastinate di tre anni e senza pagamento degli interessi. Gli sfratti per mancato versamento degli affitti vennero sospesi e si dispose che le abitazioni vacanti venissero requisite a favore dei senzatetto. Si organizzarono progetti per limitare la durata della giornata lavorativa (dalle iniziali 10 ore alle otto contemplate per il futuro), si proibì, pena sanzioni, la pratica diffusa tra gli imprenditori di comminare multe pretestuose agli operai al solo scopo di ridurre loro le paghe, furono stabiliti minimi salariali dignitosi. Venne sancita l’interdizione al cumulo di più lavori e fissato un limite massimo agli stipendi di quanti ricoprivano incarichi pubblici. Si fece quanto possibile per aumentare gli approvvigionamenti alimentari e per diminuire i prezzi. Il lavoro notturno nei panifici fu vietato e vennero aperte alcune macellerie municipali. Furono implementate diverse misure di assistenza sociale per i soggetti più deboli – compresa l’offerta di vivande a donne e bambini abbandonati – e venne deliberata la fine della discriminazione esistente tra figli legittimi e naturali.
Tutti i comunardi ritennero che la funzione dell’educazione fosse un fattore indispensabile per la liberazione degli individui, sinceramente convinti che essa rappresentasse il presupposto di ogni serio e duraturo mutamento sociale e politico. Pertanto, animarono molteplici e rilevanti dibattiti intorno alle proposte di riforma del sistema educativo. La scuola sarebbe stata resa obbligatoria e gratuita per tutte e tutti. L’insegnamento di stampo religioso sarebbe stato sostituito da quello laico, ispirato a un pensiero razionale e scientifico, e le spese di culto non sarebbero più gravate sul bilancio dello Stato. Nelle commissioni appositamente istituite e sugli organi di stampa apparvero numerose prese di posizione che evidenziarono quanto fosse fondamentale la scelta di investire sull’educazione femminile. Per diventare davvero «un servizio pubblico», la scuola doveva offrire uguali opportunità ai «bambini dei due sessi». Infine, essa doveva vietare «distinzioni di razza, nazionalità, fede o posizione sociale». Agli avanzamenti di carattere teorico, si accompagnarono prime iniziative pratiche e, in più di un arrondissement, migliaia di bambini della classe lavoratrice ricevettero gratuitamente i materiali didattici ed entrarono, per la prima volta, in un edificio scolastico.

La Comune legiferò anche misure di carattere socialista. Si decise che le officine abbandonate dai padroni fuggiti fuori città, ai quali si garantì un indennizzo al momento del ritorno, sarebbero state consegnate ad associazioni cooperative di operai. I teatri e i musei – che sarebbero stati aperti a tutti e non a pagamento – vennero collettivizzati e affidati alla gestione di quanti si erano uniti nella «Federazione degli artisti di Parigi», presieduta dal pittore e instancabile militante Gustave Courbet. A essa presero parte circa 300 scultori, architetti, litografi e pittori (tra i tanti anche Édouard Manet). A questa iniziativa seguì la nascita della «Federazione artistica» che raccolse gli attori e il mondo della lirica.
Tutte queste azioni e disposizioni furono sorprendentemente realizzate in 54 giorni, in una Parigi ancora martoriata dagli effetti della Guerra franco-prussiana. La Comune poté operare soltanto dal 29 marzo al 21 maggio e, per giunta, nel mezzo di una eroica resistenza agli attacchi di Versailles, per difendersi dai quali fu necessario un gran dispendio di energie umane e risorse finanziarie. Inoltre, poiché la Comune non disponeva di alcun mezzo coercitivo, molte delle decisioni assunte non furono applicate uniformemente nella vasta area della città. Esse costituirono, tuttavia, un notevole tentativo di riforma sociale e indicarono il cammino per un cambiamento possibile.

Una lotta collettiva e femminista

La Comune fu ben più degli atti approvati dalla sua assemblea legislativa. Ambì finanche ad alterare energicamente lo spazio urbano, come dimostra la scelta di abbattere la Colonna Vendôme, reputata monumento alla barbarie e riprovevole simbolo della guerra, e a laicizzare alcuni luoghi di culto, destinando il loro uso alla collettività. La Comune visse grazie a una straordinaria partecipazione di massa e a un solido spirito di mutua assistenza. In questo rivolgimento contro l’autorità, i club rivoluzionari sorti con incredibile rapidità in quasi tutti gli arrondissement ebbero una funzione ragguardevole. Se ne costituirono ben 28 e rappresentarono uno degli esempi più calzanti della mobilitazione spontanea che accompagnò la Comune. Aperti ogni sera, essi offrirono ai cittadini la possibilità di incontrarsi, dopo il lavoro, per dibattere liberamente sulla situazione sociale e politica, verificare quanto realizzato dai propri rappresentanti e suggerire alternative per la risoluzione delle problematiche quotidiane. Si trattava di associazioni orizzontali che favorivano la formazione e l’espressione della sovranità popolare, ma anche di spazi di autentica sorellanza e fraternità. Erano i luoghi dove ciascuno poteva respirare l’inebriante possibilità di rendersi padrone del proprio destino.
Tale percorso di emancipazione non prevedeva discriminazioni di carattere nazionale. Il titolo di cittadini della Comune andava garantito a tutti coloro che si adoperavano per il suo sviluppo e gli stranieri avevano gli stessi diritti sociali garantiti ai francesi. Riprova di questo principio di uguaglianza fu il ruolo predominante assunto da diversi stranieri (circa 3.000 in totale). L’ungherese e membro dell’Associazione Internazionale dei Lavoratori Léo Frankel non solo sedette tra gli eletti della Comune, ma fu anche il responsabile della commissione lavoro – uno dei «ministeri» più importanti di Parigi. Ruolo altrettanto rilevante ebbero i polacchi Jaroslaw Dombrowski e Walery Wroblewski, entrambi autorevoli generali a capo della Guardia Nazionale.

In questo contesto, le donne, pur se ancora private del diritto al voto e, di conseguenza, anche a quello di sedere tra i rappresentanti del Consiglio della Comune, svolsero una funzione essenziale per la critica dell’ordine sociale esistente. Trasgredirono le norme della società borghese e affermarono una loro nuova identità in opposizione ai valori della famiglia patriarcale. Uscirono dalla dimensione privata e si occuparono della sfera pubblica. Costituirono l’«Unione delle donne per la difesa di Parigi e per la cura dei feriti» (sorta grazie all’incessante attività di Élisabeth Dmitrieff, militante dell’Associazione Internazionale dei Lavoratori) ed ebbero un ruolo centrale nell’identificazione di battaglie sociali strategiche. Ottennero la chiusura delle case di tolleranza, conseguirono la parità di salario con gli insegnanti maschi, coniarono lo slogan «uguale retribuzione per uguale lavoro», rivendicarono pari diritti nel matrimonio, pretesero il riconoscimento delle libere unioni, promossero la nascita di camere sindacali esclusivamente femminili. Quando, alla metà di maggio, la situazione militare volse al peggio, con le truppe di Versailles giunte alle porte di Parigi, le donne presero le armi e riuscirono anche a formare un loro battaglione. In molte esalarono l’ultimo respiro sulle barricate. La propaganda borghese le rese oggetto dei più spietati attacchi, tacciandole di avere dato fuoco alla città durante gli scontri e bollandole con l’epiteto dispregiativo di pétroleuses.

Accentrare o decentralizzare?

La Comune voleva instaurare un’autentica democrazia. Si trattava di un progetto ambizioso e di difficile attuazione. La sovranità popolare alla quale ambivano i rivoluzionari implicava una partecipazione del più alto numero possibile di cittadini. Sin dalla fine di marzo, a Parigi si erano sviluppati una miriade di commissioni centrali, sotto-comitati di quartiere, club rivoluzionari e battaglioni di soldati che affiancarono il già complesso duopolio composto dal consiglio della Comune e dal comitato centrale della Guardia Nazionale. Quest’ultimo, infatti, aveva conservato il controllo del potere militare, operando, spesso, come un vero contropotere del primo. Se l’impegno diretto di un’ampia parte della popolazione costituiva una vitale garanzia democratica, le troppe autorità in campo avevano reso complicato il processo decisionale e tortuosa l’applicazione delle ordinanze.
Il problema della relazione tra l’autorità centrale e gli organi locali produsse non pochi cortocircuiti, determinando una situazione caotica e non di rado paralizzante. L’equilibrio già precario saltò del tutto quando, dinanzi all’emergenza della guerra, all’indisciplina presente tra i ranghi della Guardia Nazionale e a una crescente inefficacia dell’azione governativa, Jules Miot propose la creazione di un Comitato di Salute Pubblica di cinque componenti – una soluzione che si ispirava al modello dittatoriale di Maximilien Robespierre nel 1793. La misura venne approvata, con 45 voti a favore e 23 contrari, il primo maggio. Fu un drammatico errore che decretò l’inizio della fine di un’esperienza politica inedita e spaccò la Comune in due blocchi contrapposti. Al primo appartenevano neo-giacobini e blanquisti, propensi alla concentrazione del potere e, al fine, in favore del primato della dimensione politica su quella sociale. Del secondo facevano parte la maggioranza dei membri dell’Associazione Internazionale dei Lavoratori, per i quali la sfera sociale era più significativa di quella politica. Essi ritenevano necessaria la separazione dei poteri e credevano che la repubblica non dovesse mai mettere in discussione le libertà politiche. Coordinati dall’infaticabile Eugène Varlin, pronunciarono un netto rifiuto alle derive autoritarie e non parteciparono all’elezione del Comitato di Salute Pubblica. Per loro, il potere centralizzato nelle mani di pochi individui sarebbe stato in netto contrasto con i postulati della Comune. I suoi eletti non erano i possessori della sovranità – essa apparteneva al popolo – e, pertanto, non avevano alcun diritto di alienarla. Il 21 maggio, allorquando la minoranza prese di nuovo parte a una seduta del consiglio della Comune, fu posto in essere un nuovo tentativo di ritessere l’unità al suo interno. Era, però, già troppo tardi.

La Comune come sinonimo della rivoluzione

La Comune di Parigi fu repressa con brutale violenza dalle armate di Versailles. Durante la cosiddetta «settimana di sangue» (21-28 maggio) vennero uccisi tra i 17.000 e i 25.000 cittadini. Gli ultimi combattimenti si svolsero lungo la cinta del cimitero Père-Lachaise. Il giovane Arthur Rimbaud descrisse la capitale francese come una «città dolorosa, quasi morta». Fu il massacro più violento della storia della Francia. Solo in 6.000 riuscirono a fuggire e a riparare in esilio tra Inghilterra, Belgio e Svizzera. I prigionieri catturati furono 43.522. Un centinaio di questi subì la condanna a morte, a seguito di processi sommari inscenati da corti marziali, mentre in circa 13.500 vennero spediti in carcere, ai lavori forzati, o deportati (in numero consistente soprattutto nella remota Nuova Caledonia). Alcuni di essi solidarizzarono e condivisero la stessa sorte degli insorti algerini che avevano capeggiato la rivolta anticoloniale di Mokrani, svoltasi in contemporanea alla Comune e anch’essa schiacciata dalla violenza delle truppe francesi.
Lo spettro della Comune intensificò la repressione anti-socialista in tutt’Europa. Sottacendo l’inaudita violenza di Stato operata da Thiers, la stampa conservatrice e liberale accusò i comunardi dei peggiori crimini ed espresse grande sollievo per il ripristino «dell’ordine naturale» e della legalità borghese, nonché compiacimento per il trionfo della «civiltà» sull’anarchia. Quanti avevano osato infrangere l’autorità e attentare ai privilegi della classe dominante furono puniti in modo esemplare. Le donne tornarono a essere considerate esseri inferiori e gli operai, dalle mani sporche e piene di calli, che avevano osato pensare di poter governare, furono ricacciati nei posti della società ritenuti a loro congeniali.
Eppure, l’insurrezione parigina diede forza alle lotte operaie e le spinse verso posizioni più radicali. All’indomani della sua sconfitta, Eugène Pottier scrisse un canto destinato a diventare il più celebre del movimento dei lavoratori. I suoi versi recitavano: «Uniamoci e domani L’Internazionale sarà il genere umano!». Parigi aveva mostrato che bisognava perseguire l’obiettivo della costruzione di una società radicalmente diversa da quella capitalistica. Da quel momento in poi, anche se per i suoi protagonisti non giunse mai Il tempo delle ciliegie (secondo il titolo del celebre brano composto dal comunardo Jean Baptiste Clément), la Comune incarnò contemporaneamente l’idea astratta e il cambiamento concreto. Divenne sinonimo del concetto stesso di rivoluzione, fu un’esperienza ontologica della classe lavoratrice. In La guerra civile in Francia, Marx affermò che questa «avanguardia del proletariato moderno» riuscì ad «annettere alla Francia gli operai di tutto il mondo». La Comune di Parigi mutò le coscienze dei lavoratori e la loro percezione collettiva. A distanza di 150 anni, il suo rosso vessillo continua a sventolare e ci ricorda che un’alternativa è sempre possibile. Vive la Commune!

 

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La Comuna de París: l’alternativa possible

Els burgesos sempre ho havien aconseguit tot. Des de la Revolució de 1789, eren els únics que s’havien enriquit en els períodes de prosperitat, mentre la classe treballadora havia hagut d’assumir regularment el cost de les crisis. La proclamació de la Tercera República va obrir nous escenaris, i va ser l’ocasió per invertir aquesta tendència. Napoleó III havia perdut i havia estat detingut pels alemanys a Sedan el 4 de setembre de 1870. Al gener de l’any següent, la rendició de París, que havia estat assetjada durant més de quatre mesos, havia obligat els francesos a acceptar les condicions imposades per Otto von Bismarck. Es va arribar a un armistici que va permetre la celebració d’eleccions i el nomenament d’Adolphe Thiers com a cap del poder executiu, amb el suport d’una ampla majoria legitimista i orleanista. Però, a la capital, diversament de la resta del país, la coalició progressista- republicana havia guanyat amb una majoria indiscutible, i el descontentament popular era més fort que en altres llocs. L’amenaça d’un executiu que volia preservar totes les injustícies socials, desarmar la ciutat i fer pagar el preu de la guerra als sectors més pobres de la població va desencadenar la rebel·lió. El 18 de març va esclatar una nova revolució; Thiers i la seva armada van haver de refugiar-se a Versalles.

Lluita i govern

Els insurgents van decidir celebrar immediatament unes eleccions lliures per assegurar la legitimitat democràtica de la insurrecció. El 26 de març, una majoria indiscutible (190.000 vots contra 40.000) va aprovar els motius de la revolta, i 70 dels 85 electes van declarar-se a favor de la revolució. Els 15 representats moderats de l’anomenat «parti de maires», un grup format per ex-presidents d’alguns arrondissements, van dimitir immediatament i no van entrar a fer part del consell de la Comuna. Poc temps després, quatre radicals van fer el mateix. Els 66 membres restants, difícilment distingibles per les seves dobles pertinences polítiques, representaven posicions molt variades. Entre ells hi havia uns vint republicans neo- jacobins (també personatges influents com Charles Delescluze i Felix Pyat), una dotzena de seguidors d’August Blanqui, 17 membres de l’Associació Internacional de Treballadors (entre ells, hi eren tant els mutualistes de Pierre-Joseph Proudhon com els col·lectivistes seguidors de Karl Marx, sovint en conflicte entre ells) i un parell de membres independents.
La majoria dels membres de la Comuna eren obrers o representants de la classe obrera. Catorze d’ells venien de la Guàrdia Nacional. Va ser justament el seu comitè central qui va lliurar el poder a la Comuna, tot i que això va representar l’inici d’una llarga sèrie de contradiccions i conflictes entre les dues organitzacions.

El 28 de març una gran massa de ciutadans es va reunir a prop de l’Ajuntament i va celebrar la nova assemblea, que des d’aquell moment es va anomenar oficialment «Comuna de París». Tot i que va resistir només 72 dies, va ser l’esdeveniment polític més important de la història del moviment obrer al segle XIX. La Comuna va tornar l’esperança a la població, que portava mesos suportant durs patiments. Als barris van néixer comitès i grups de suport, i a tots els racons de la metròpoli es van multiplicar les iniciatives de solidaritat i els plans per a la construcció d’un nou món. Montmartre va rebre el sobrenom de «ciutadella de la llibertat». Un dels sentiments més forts va ser el desig de compartir. Els militants com Louise Michel van ser grans models pel seu esperit de sacrifici; Victor Hugo li va dedicar aquestes paraules: «feies el que fan les ànimes boges. Glorificaves els oprimits i els sotmesos». Tot i això, la Comuna no v T engegada per un líder o unes poques persones carismàtiques; al contrari, la seva
característica principal va ser la seva dimensió fortament col·lectiva. Dones i homes es van associar voluntàriament en un projecte comú d’alliberació. L’autogestió ja no era una utopia. L’autoemancipació era imprescindible.

La transformació del poder polític

Alguns dels primers decrets d’emergència aprovats per frenar la pobresa van ser la suspensió del pagament dels lloguers (es va considerar just que ««els propietaris també fessin sacrificis»), i de la venda dels objectes de valor igual o inferior a 20 francs dipositats a les cases d’empenyorament. A més, es van crear nou comissions per substituir els ministeris existents: guerra, finances, seguretat general, educació, subsistència, justícia, treball i intercanvi, relacions amb l’estranger, i serveis públics. Més tard, es va nominar un delegat per dirigir cada una d’aquestes comissions.
El 19 d’abril, tres dies després de les eleccions que van permetre la substitució de 31 escons que havien quedat immediatament vacants, la Comuna va redactar la Declaració al poble francès, en la qual es proclamaven «la garantia absoluta de la llibertat individual, de consciència i de treball» i «la participació permanent del ciutadans en les qüestions de la Comuna». Es va declarar que el conflicte entre París i Versalles «no podia acabar amb acords enganyosos» i que el poble «havia de lluitar i guanyar!». Aquest document va ser una síntesi més aviat ambigua per evitar tensions entre les diferents tendències polítiques; però també hi va haver actes concrets molt més significatius, mitjançant els quals els militants de la Comuna van lluitar per una transformació total del poder polític. Van engegar un conjunt de reformes que pretenien canviar profundament no només les modalitats d’administració de la política, sinó la seva essència. La democràcia directa de la Comuna preveia la revocabilitat dels càrrecs electes i el control de la seva feina mitjançant un mandat imperatiu (una mesura insuficient per resoldre la complexa qüestió de la representació política). Els magistrats i els alts càrrecs públics, també sotmesos a un control permanent i a la possibilitat de revocació, no havien de ser elegits arbitràriament, com abans, sinó nombrats després d’unes oposicions o unes eleccions transparents. Calia evitar la professionalització de l’esfera pública. Les decisions polítiques no havien de ser preses per petits grups de tècnics i funcionaris, sinó pel poble. L’exèrcit i les forces policials ja no serien institucions separades del cos de la societat. La separació entre l’Estat i l’església era una necessitat irrenunciable.

Tot i així, el canvi polític no podia consistir només en aquestes mesures. Era necessari anar a l’arrel del problema. La burocràcia s’havia de reduir dràsticament transferí- fia poder al poble. L’esfera social havia de prevaler sobre la política, i aquesta, com ja havia dit Henri de Saint-Simon, no podia ser una funció especialitzada, perquè havia de ser incorporada progressivament dins de l’activitat de la societat civil. Era necessari que el cos social tornés a prendre el control de les funcions que havien estat transferides a l’Estat. Enderrocar el domini de classe en la seva forma actual no era suficient: s’havia d’eliminar del tot. Tot això permetria la realització del projecte de la Comuna: una república constituïda per una unió de associacions lliures i realment democràtiques que promoguessin la emancipació en tots els seus matisos. Era l’autogovern dels productors.

La prioritat de les reformes socials

La Comuna considerava que les reformes socials eren encara més importants que els canvis del sistema polític. Eren la seva raó d’existir, el termòmetre per mesurar la fidelitat als principis dels què havia nascut i l’element que més la diferenciava de les revolucions anteriors, les de 1789 i 1848. La Comuna va ratificar diferents mesures de classe. Els venciments dels deutes es van prorrogar tres anys i sense interessos. Els desnonaments per impagament dels lloguers es van suspendre i es va decidir que els habitatges buits s’havien de confiscar a favor de les persones sense llar. Es van engegar projectes per limitar la durada de la jornada laboral (des de les 10 hores inicials a 8), es va prohibir i sancionar la pràctica difosa entre els emprenedors de multar als obrers amb qualsevol pretext només per reduir-los el sou, i es van establir uns mínims salarials dignes. Es va consolidar la prohibició d’acumular més d’una feina i es va establir un límit màxim pels sous dels que ocupaven un càrrec públic. Es va fer el possible per augmentar l’abastament alimentari i baixar-ne els preus. Es va prohibir el treball nocturn a les fleques i es van obrir carnisseries municipals. També es van implementar diferents mesures d’assistència social per als més vulnerables, com ara la provisió d’aliments per a les dones i els infants abandonats, i es va prohibir la discriminació que existia entre fills legítims i naturals.

Tots els membres de la Comuna consideraven que la educació era un factor indispensable per l’alliberament de les persones, i estaven convençuts que era la base necessària per qualsevol canvi social o polític real i durable. Per tant, van sorgir molts debats al voltant de les propostes de reforma del sistema educatiu. L’escola havia de ser obligatòria i gratuïta per a totes i tots. L’ensenyament religiós s’havia de substituir per un de laic, inspirat en el pensament racional i científic, i el pressupost de l’Estat ja no s’encarregaria de les despeses religioses. La importància de la educació femenina va ser defensada per diferents comissions especials i per la premsa. Per arribar a ser «un servei públic», l’escola havia d’oferir les mateixes oportunitats «als infants dels d sexes». I també havia de prohibir «les distincions de raça, nacionalitat, fe o posició social». Amb els avenços teòrics també van arribar les primeres iniciatives concretes: en diferents arrondissements, milers d’infants de classe obrera van rebre materials didàctics de forma gratuïta i van poder entrar per primer cop a una escola.
La Comuna també va legislar sobre mesures de caire socialista. Es va decidir que les fàbriques abandonades pels propietaris fugits de la ciutat s’havien de lliurar a associacions cooperatives d’obrers, i que els propietaris serien indemnitzats al seu retorn. Els teatres i els museus, que havien de ser gratuïts i oberts a tothom, van passar a ser col·lectivitzats i gestionats per la «Federació dels artistes de París», presidida pel pintor militant Gustave Courbet. En van fer part uns 300 escultors, arquitectes, litògrafs i pintors (entre els quals hi era Édouard Manet). D’aquesta iniciativa va néixer la «Federació artística» que va ajuntar els actors i el món de la lírica.
Increïblement, totes aquestes accions i disposicions es van realitzar en tan sols 54 dies, a una París encara devastada pels efectes de la guerra franco-prussiana. La Comuna va existir només del 29 de març al 21 de maig, i contemporàniament a una resistència heroica als atacs de Versalles, contra els quals es van fer servir recursos humans i econòmics enormes. A més, com que la Comuna no tenia cap mitjà coercitiu, moltes de les decisions que es van prendre no es van poder implementar uniformement a la gran ciutat. Tot i això, van representar un important intent de reforma social i van mar el camí cap a un canvi possible.

Una lluita col·lectiva e feminista

La Comuna va anar molt més enllà del conjunt d’accions que va aprovar la seva assemblea legislativa. Va voler fins i tot capgirar l’espai urbà, com demostra la decisió d’enderrocar la Columna Vendome, que era considerada un monument a la barbàrie i un símbol vergonyós de la guerra, i laïcitzar alguns llocs de culte per fer-ne espais per a la comunitat. La Comuna va existir gràcies a una extraordinària participació de massa i a un fort esperit d’assistència mútua. En aquesta rebel·lió contra la autoritat, els clubs revolucionaris que van néixer amb increïble rapidesa a gairebé tots els arrondissements van tenir una funció fonamental. Se’n van constituir 28, i van representar un dels millors exemples de la mobilització espontània que va acompanyar la Comuna. Obrien tots els vespres i oferien als ciutadans la possibilitat de trobar-se després de la feina per parlar lliurement de la situació social i política, verificar el que feien els seus representants i proposar alternatives per a la resolució dels problemes quotidians. Eren associacions horitzontals que afavorien la formació i la expressió de la sobirania popular, i també espais d’autèntica fraternitat i sororitat. Eren llocs on cadascú podia sentir-se amo del seu destí.
Aquest projecte d’emancipació no feia distincions de nacionalitat. Eren ciutadans de la Comuna totes les persones que contribuïen al seu desenvolupament, i els estrangers tenien els mateixos drets socials dels francesos. Ho demostra el rol important que van tenir els estrangers, uns 3.000 el total. L’hongarès Léo Frankel, que feia part de l’Associació Internacional dels Treballadors, no va ser només un membre electe de la Comuna, sinó també responsable de la comissió del treball, un dels «ministeris» més importants de París. Els polonesos Jaroslaw Dombrowski i Walery Wroblewski també van ocupar càrrecs importants com a generals de la Guàrdia Nacional.

En aquest marc, les dones, encara que no tinguessin dret de vot ni poguessin ser representants del Consell de la Comuna, van tenir una funció fonamental per a la crítica a l’ordre social existent. Van transgredir les normes de la societat burgesa i reivindicar la seva nova identitat en oposició als valors de la família patriarcal. Van sortir de la dimensió privada i entrar a l’esfera pública. Van constituir la «Unió de les dones per a la defensa de París i la cura dels ferits» (nascuda gràcies a l’infatigable activitat d’Élisabeth Dmitrieff, militant de l’Associació Internacional dels Treballadors) i van tenir un rol central en la identificació de les lluites socials més estratègiques. Van aconseguir el tancament dels prostíbuls i la igualtat salarial amb els ensenyants homes, crear l’eslògan «a igual feina, igual salari», reivindicar la paritat de drets dins del matrimoni, demanar el reconeixement de les unions lliures i promo la creació de càmeres sindicals exclusivament femenines. Quan cap a la meitat de maig la situació militar va empitjorar i les tropes de Versalles van arribar a les portes de París, les dones van agafar les armes per formar un batalló propi. Moltes van morir a les barricades. La propaganda burgesa les va atacar de la pitjor manera, acusant-les d’haver cremat la ciutat durant el conflicte i donant-los el malnom de pétroleuses.

Centralitzar o descentralitzar?

La Comuna pretenia crear una autèntica democràcia. Era un projecte ambiciós i difícil de realitzar. La sobirania popular que anhelaven els revolucionaris implicava la participació del major nombre de ciutadans possible. Des de finals de març, a París s’havien creat moltíssimes comissions centrals, comitès de barri, clubs revolucionaris i batallons de soldats que s’havien afegit al complex duopoli format pel consell de la Comuna i el comitè central de la Guàrdia Nacional. El segon havia conservat el poder militar, actuant sovint com a contrapoder del primer. Encara que l’esforç directe d’una gran part de la població constituís una garantia democràtica fonamental, les diferents autoritats sobre el terreny havien complicat el procés de decisió i l’aplicació de les mesures.
El problema de la relació entre l’autoritat central i els òrgans locals va causar moltes dificultats, creant una situació caòtica i sovint paralitzant. Aquest equilibri delicat va trencar-se totalment quan, a causa de l’emergència de la guerra, de la manca de disciplina en els rangs de la Guàrdia nacional i d’una acció de govern cada vegada menys eficaç, Jules Miot va proposar la creació d’un Comitè de Salut Pública en cinc parts; una solució inspirada en el model dictatorial de Maximilien Robespierre el 1793. Aquesta mesura es va aprovar l’i de maig, amb 45 vots a favor i 23 en contra. Va ser un terrible error, que va marcar el principi de la fi d’una experiència política inèdita, i va trencar la Comuna en dos blocs oposats. En el primer hi eren els neo-jacobins i els blanquistes, partidaris de la concentració del poder i de donar més importància a la dimensió política que a aquella social. En el segon, en canvi, hi eren la majoria dels membres de l’Associació Internacional dels Treballadors, pels quals l’esfera social era més important que aquella política. Aquests eren partidaris de la separació dels poders i consideraven que la república no havia de qüestionar mai les llibertats polítiques. Coordinats per l’infatigable Eugène Verlin, van rebutjar amb força les derives autoritàries i no van participar a l’elecció del Comitè de Salut Pública. Per a ells, que el poder es centralitzés a les mans de poques persones hauria estat en contradicció amb els principis de la Comuna. Els membres electes no eren els possessors de la sobirania (que pertanyia al poble), i per tant, non tenien cap dret d’alienar-la. El 21 de maig, quan el bloc minoritari va tornar a participar a una sessió del consell de la Comun’ va intentar reunificar les dues posicions. Però ja era tard.

La Comuna com a sinònim de revolució

La Comuna de París va ser reprimida amb una violència brutal per les armades de Versalles. Durant l’anomenada «Setmana Sagnant» (21-28 de maig), van morir entre 17.000 e 25.000 ciutadans. Els últims combats van tenir lloc a prop del cementiri de Père-Lachaise. El jove Arthur Rimbaud va descriure la capital francesa com a una «ciutat dolorosa, gairebé morta». Va ser la massacre més violenta de la història de França. Només 6.000 persones van poder fugir en exili a Anglaterra, Bèlgica o Suïssa. Hi va haver 43.522 presoners. Uns cent van ser condemnats a mort pels tribunals militars, mentre uns 13.500 van ser enviats a la presó, als treballs forçats o deportats (molts a Nova Caledònia). Alguns d’ells es van solidaritzar i van compartir la mateixa sort dels insurgents algerians que havien liderat la revolta anticolonial de Mokrani, que havia tingut lloc al mateix temps de la Comuna i que també havia estat reprimida amb violència per les tropes franceses.

L’espectre de la Comuna va intensificar la repressió anti-socialista a tota Europa. Fent cas omís de l’increïble violència de l’Estat ordenada per Thiers, la premsa conservadora i liberal va acusar els comunards dels pitjors crims, i va expressar un gran alleujament pel retorn a «l’ordre natural» i a la legalitat burgesa, a més de una gran satisfacció pel triomf de la «civilitat» sobre l’anarquia. Els que havien gosat oposar-se a l’autoritat i als privilegis de la classe dominant van ser castigats de ^ manera exemplar. Les dones van tornar a ser considerades com a éssers inferiors, i els obrers, amb les seves mans brutes i calloses, van tornar als llocs de la societat als quals es considerava que pertanyien.
Tot i així, la insurrecció de París va reforçar les lluites obreres i les va empènyer cap a posicions més radicals. Després de la derrota, Eugène Pottier va escriure el que es convertiria en l’himne més famós del moviment obrer. Deia: «Unim-nos i demà La internacional serà el gènere humà!» París havia demostrat que calia perseguir l’objectiu de la construcció d’una societat radicalment diferent de la capitalista. Des d’aquell moment, encara que pels seus protagonistes no va arribar mai «El temps de les cireres» (segon títol del famós poema escrit pel comunard Jean Baptiste Clément), la Comuna va representar contemporàniament una idea abstracta i un canvi concret. Es va convertir en un sinònim del mateix concepte de revolució: va ser una experiència ontològica de la classe treballadora. A La guerra civil a França, Marx va afirmar que aquesta «avantguarda del proletariat modern» va aconseguir «annexar a França tots els obrers del món». La Comuna de París va transformar la consciència dels treballadors i la seva percepció col·lectiva. 150 anys després, la seva bandera roja segueix ondejant i ens recorda que una alternativa sempre és possible. Vive la Commune!

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The Paris Commune Is Still a Beacon for Radical Change

On this day in 1871, the working class of Paris seized control of the capital and established the Commune. Though it ruled for just two months, the world’s first workers’ government still stands as a vivid example of the kind of society workers themselves can create, according to their own vision of freedom and equality.
The bourgeois of France had always come away with everything. Since the revolution of 1789, they had been the only ones to grow rich in periods of prosperity, while the working class had regularly borne the brunt of crises. But the proclamation of the Third Republic would open new horizons and offer an opportunity for a change of course. Napoleon III, having been defeated in battle at Sedan, was taken prisoner by the Prussians on September 4, 1870. In the following January, after a four-month siege of Paris, Otto von Bismarck obtained a French surrender and was able to impose harsh terms in the ensuing armistice.

National elections were held and Adolphe Thiers installed at the head of the executive power, with the support of a large Legitimist and Orleanist majority. In the capital, however, where the popular discontent was greater than elsewhere, radical republican and socialist forces swept the board. The prospect of a right-wing government that would leave social injustices intact, heaping the burden of the war on the least well off and seeking to disarm the city, triggered a new revolution on March 18. Thiers and his army had little choice but to decamp to Versailles.

Struggle and Government

To secure democratic legitimacy, the insurgents decided to hold free elections at once. On March 26, an overwhelming majority of Parisians (190,000 votes against 40,000) voted for candidates who supported the revolt, and seventy of the eighty-five elected representatives declared their support for the revolution. The fifteen moderate representatives of the parti des maires, a group comprising the former heads of certain arrondissements, immediately resigned and did not participate in the council of the Commune; they were joined shortly afterward by four Radicals.
The remaining sixty-six members — not always easy to distinguish because of dual political affiliations — represented a wide range of positions. Among them were twenty or so neo¬Jacobin republicans (including the renowned Charles Delescluze and Felix Pyat), a dozen followers of Auguste Blanqui, seventeen members of the International Working Men’s Association (both mutualist partisans of Pierre-Joseph Proudhon and collectivists linked to Karl Marx, often at odds with one another), and a couple of independents.
Most leaders of the Commune were workers or recognized representatives of the working class, and fourteen hailed from the National Guard. In fact, it was the central committee of the latter that invested power in the hands of the Commune — the prelude, as it turned out, to a long series of disagreements and conflicts between the two bodies.
“Although it would survive for no more than seventy-two days, it was the most important political event in the history of the nineteenth-century workers’ movement, rekindling hope among a population exhausted by months of hardship.”

On March 28 a large number of citizens gathered in the vicinity of the Hotel de Ville for festivities celebrating the new assembly, which now officially took the name of the Paris Commune. Although it would survive for no more than seventy-two days, it was the most important political event in the history of the nineteenth-century workers’ movement, rekindling hope among a population exhausted by months of hardship. Committees and groups sprang up in the popular quarters to lend support to the Commune, and every corner of the metropolis hosted initiatives to express solidarity and to plan the construction of a new world. Montmartre was baptized the “citadel of liberty.”
One of the most widespread sentiments was a desire to share with others. Militants like Louise Michel exemplified the spirit of self-abnegation; Victor Hugo wrote of her that she “did what the great wild souls do. […] She glorified the crushed and downtrodden.” But it was not the impetus of a leader or a handful of charismatic figures that gave life to the Commune; its hallmark was its clearly collective dimension. Women and men came together voluntarily to pursue a common project of liberation. Self-government was not seen as a utopia. Self¬emancipation was thought of as the essential task.

The Transformation of Political Power

Two of the first emergency decrees to stem the rampant poverty were a freeze on rent payments (it was said that “property should make its fair share of sacrifices”) and the selling of items valued below twenty francs in pawn shops. Nine collegial commissions were also supposed to replace the ministries for war, finance, general security, education, subsistence, labor and trade, foreign relations, and public service. A little later, a delegate was appointed to head each of these departments.
“Women and men came together voluntarily to pursue a common project of liberation. Self-government was not seen as a utopia. Self-emancipation was thought of as the
essential task.”
On April 19, three days after further elections to fill thirty-one seats that became almost immediately vacant, the Commune adopted a Declaration to the French People that contained an “absolute guarantee of individual liberty, freedom of conscience and freedom of labor” as well as “the permanent intervention of citizens in communal affairs.” The conflict between Paris and Versailles, it affirmed, “cannot be ended through illusory compromises”; the people had a right and “obligation to fight and to win!”
Even more significant than this text — a somewhat ambiguous synthesis to avoid tensions among the various political tendencies — were the concrete actions through which the Communards fought for a total transformation of political power. A set of reforms addressed not only the modalities but the very nature of political administration.
The Commune provided for the recall of elected representatives and for control over their actions by means of binding mandates (though this was by no means enough to settle the complex issue of political representation). Magistracies and other public offices, also subject to permanent control and possible recall, were not to be arbitrarily assigned, as in the past, but to be decided following an open contest or elections.
The clear aim was to prevent the public sphere from becoming the domain of professional politicians. Policy decisions were not relegated to small groups of functionaries, but had to be taken by the people. Armies and police forces would no longer be institutions set apart from the body of society. The separation between state and church was also a sine qua non.

But the vision of political change went even deeper. The transfer of power into the hands of the people was needed to drastically reduce bureaucracy. The social sphere should take precedence over the political — as Henri de Saint-Simon had already maintained — so that politics would no longer be a specialized function but become progressively integrated into the activity of civil society. The social body would thus take back functions that had been transferred to the state.
“To overthrow the existing system of class rule was not sufficient; there had to be an end to class rule as such.”
To overthrow the existing system of class rule was not sufficient; there had to be an end to class rule as such. All this would have fulfilled the Commune’s vision of the republic as a union of free, truly democratic associations promoting the emancipation of all its components. It would have added up to self-government of the producers.

Prioritizing Social Reforms

The Commune held that social reform was even more crucial than political change. It was the reason for the Commune’s existence, the barometer of its loyalty to its founding principles, and the key element differentiating it from the previous revolutions in 1789 and 1848. The Commune passed more than one measure with clear class connotations.
Deadlines for debt repayments were postponed by three years, without any additional interest charges. Evictions for nonpayment of rent were suspended, and a decree allowed vacant accommodation to be requisitioned for people without a roof over their heads. There were plans to shorten the working day (from the initial ten hours to the eight hours envisaged for the future), the widespread practice of imposing specious fines on workers simply as a wage-cutting measure was outlawed on pain of sanctions, and minimum wages were set at a respectable level.
As much as possible was done to increase food supplies and to lower prices. Night work at bakeries was banned, and a number of municipal meat stores were opened. Social assistance of various kinds was extended to weaker sections of the population — for example, food banks for abandoned women and children — and discussions were held on how to end the discrimination between legitimate and illegitimate children.
All the Communards sincerely believed that education was an essential factor for individual emancipation and any serious social and political change. School attendance was to become free and compulsory for girls and boys alike, with religiously inspired instruction giving way to secular teaching along rational, scientific lines. Specially appointed commissions and the pages of the press featured many compelling arguments for investment in female education. To become a genuine “public service,” education had to offer equal opportunities to “children of both sexes.”

Moreover, “distinctions on grounds of race, nationality, religion or social position” should be prohibited. Early practical initiatives accompanied such advances in theory, and in more than one arrondissement thousands of working-class children entered school buildings for the first time and received classroom material free of charge.
“Since the Commune had no means of coercion at its disposal, many of its decrees were not applied uniformly in the vast area of the city. Yet they displayed a remarkable drive to reshape society and pointed the way to possible change.”
The Commune also adopted measures of a socialist character. It decreed that workshops abandoned by employers who had fled the city, with guarantees of compensation on their return, should be handed over to cooperative associations of workers. Theaters and museums — open for all without charge — were collectivized and placed under the management of the F ederation of Artists, which was presided over by the painter and tireless militant Gustave Courbet. Some three hundred sculptors, architects, lithographers, and painters (among them Edouard Manet) participated in this body — an example taken up in the founding of an “Artists’ Federation” bringing together actors and people from the operatic world.
All these actions and provisions were introduced in the space of just fifty-four days, in a city still reeling from the effects of the Franco-Prussian War. The Commune was able to do its work only between March 29 and May 21, in the midst of heroic resistance to attacks by the Versaillais that also required a great expenditure of human energy and financial resources. Since the Commune had no means of coercion at its disposal, many of its decrees were not applied uniformly in the vast area of the city. Yet they displayed a remarkable drive to reshape society and pointed the way to possible change.

Collective and Feminist Struggle

The Commune was much more than the actions approved by its legislative assembly. It even aspired to redraw urban space. Such ambition was demonstrated by the decision to demolish the Vendome Column, considered a monument to barbarism and a reprehensible symbol of war, and to secularize certain places of worship by handing them over for use by the community.
It was thanks to an extraordinary level of mass participation and a solid spirit of mutual assistance that the Commune persisted for as long as it did. Revolutionary clubs that sprang up in nearly every arrondissement played a noteworthy role. There were at least twenty-eight of them, representing one of the most eloquent examples of spontaneous mobilization.
Open every evening, they offered citizens the opportunity to meet after work to freely discuss the social and political situation, to check what their representatives had achieved, and to suggest alternative ways of solving day-to-day problems. They were horizontal associations, which favored the formation and expression of popular sovereignty as well as the creation of genuine spaces of sisterhood and fraternity, where everyone could breathe the intoxicating air of control over their own destiny.
This emancipatory trajectory had no place for national discrimination. Citizenship of the Commune extended to all who strove for its development, and foreigners enjoyed the same social rights as French people. The principle of equality was evident in the prominent role played by the three thousand foreigners active in the Commune. Leo Frankel, a Hungarian member of the International Working Men’s Association, was not only elected to the council of the Commune but served as its “minister” of labor — one of its key positions. Similarly, the Poles Jaroslaw D^browski and Walery Wroblewski were distinguished generals at the head of the National Guard.
“When the military situation worsened in mid-May, with the Versaillais at the gates of Paris, women took up arms and formed a battalion of their own. Many would breathe their last on the barricades.”

Women, though still without the right to vote or to sit on the Council of the Commune, played an essential role in the critique of the social order. In many cases, they transgressed the norms of bourgeois society and asserted a new identity in opposition to the values of the patriarchal family, moving beyond domestic privacy to engage with the public sphere.
The Women’s Union for the Defense of Paris and Care for the Wounded, whose origin owed a great deal to the tireless activity of the First International member Elisabeth Dmitrieff, was centrally involved in identifying strategic social battles. Women achieved the closure of licensed brothels, won parity for female and male teachers, coined the slogan “equal pay for equal work,” demanded equal rights within marriage and the recognition of free unions, and promoted exclusively female chambers in labor unions.
When the military situation worsened in mid-May, with the Versaillais at the gates of Paris, women took up arms and formed a battalion of their own. Many would breathe their last on the barricades. Bourgeois propaganda subjected them to the most vicious attacks, dubbing them les petroleuses and accusing them of having set the city ablaze during the street battles.

To Centralize or Decentralize?

The genuine democracy that the Communards sought to establish was an ambitious and difficult project. Popular sovereignty required the participation of the greatest possible number of citizens. From late March on, Paris witnessed the mushrooming of central commissions, local subcommittees, revolutionary clubs and soldiers’ battalions, which flanked the already complex duopoly of the Council of the Commune and the central committee of the National Guard.
The latter had retained military control, often acting as a veritable counterpower to the council. Although direct involvement of the population was a vital guarantee of democracy, the multiple authorities in play made the decision-making process particularly difficult and meant that the implementation of decrees was a tortuous affair.
The problem of the relationship between central authority and local bodies led to quite a few chaotic, at times paralyzing, situations. The delicate balance broke down altogether when, faced with the war emergency, indiscipline within the National Guard, and the growing inefficacy of government, Jules Miot proposed the creation of a five-person Committee of Public Safety, along the lines of Maximilien Robespierre’s dictatorial model in 1793.
The measure was approved on the First of May, by a majority of forty-five to twenty-three. It proved to be a dramatic error, which marked the beginning of the end for a novel political experiment and split the Commune into two opposing blocs.
The first of these, made up of neo-Jacobins and Blanquists, leaned toward the concentration of power and, in the end, to the primacy of the political over the social dimension. The second, including a majority of members of the International Working Men’s Association, regarded the social sphere as more significant than the political. They thought that a separation of powers was necessary and insisted that the republic must never call political freedoms into question.
Coordinated by the indefatigable Eugene Varlin, this latter bloc sharply rejected the authoritarian drift and did not take part in the elections of the Committee of Public Safety. In its view, the centralization of powers in the hands of a few individuals would flatly contradict the founding postulates of the Commune, since its elected representatives did not possess sovereignty — that belonged to the people — and had no right to cede it to a particular body.
On May 21, when the minority again took part in a session of the Council of the Commune, a new attempt was made to weave unity in its ranks. But it was already too late.

The Commune as Synonym of Revolution

The Paris Commune was brutally crushed by the armies of Versailles. During the semaine sanglante, the week of blood-letting between May 21 and 28, a total of seventeen thousand to twenty-five thousand citizens were slaughtered. The last hostilities took place along the walls of Pere Lachaise Cemetery. A young Arthur Rimbaud described the French capital as “a mournful, almost dead city.” It was the bloodiest massacre in the history of France.
Only six thousand managed to escape into exile in England, Belgium, and Switzerland. The number of prisoners taken was 43,522. A hundred of these received death sentences, following summary trials before courts martial, and another 13,500 were sent to prison or forced labor, or deported to remote areas such as New Caledonia. Some who went there solidarized with and shared the fate of the Algerian leaders of the anti-colonial Mokrani revolt, which had broken out at the same time as the Commune and also been drowned in blood by French troops.
“The Commune embodied the idea of social-political change and its practical application. It became synonymous with the very concept of revolution, with an ontological experience of the working class.”

The spectre of the Commune intensified the anti-socialist repression all over Europe. Passing over the unprecedented violence of the Thiers state, the conservative and liberal press accused the Communards of the worst crimes and expressed great relief at the restoration of the “natural order” and bourgeois legality, as well as satisfaction with the triumph of “civilization” over anarchy.
Those who had dared to violate the authority and attack the privileges of the ruling class were punished in exemplary fashion. Women were once again treated as inferior beings, and workers, with dirty, calloused hands who had brazenly presumed to govern, were driven back into positions for which they were deemed more suitable.
And yet, the insurrection in Paris gave strength to workers’ struggles and pushed them in more radical directions. On the morrow of its defeat, Eugene Pottier wrote what was destined to become the most celebrated anthem of the workers’ movement: “Let us group together and tomorrow / The Internationale / Will be the human race!”
Paris had shown that the aim had to be one of building a society radically different from capitalism. Henceforth, even if “the time of cherries” [le temps des cerises] (to quote the title of the communard Jean-Baptiste Clement’s famous verse), never returned for its protagonists, the Commune embodied the idea of social-political change and its practical application. It became synonymous with the very concept of revolution, with an ontological experience of the working class. In The Civil War in France, Karl Marx stated that this “vanguard of the modern proletariat” had succeeded in “attaching the workers of the world to France.”
The Paris Commune changed the consciousness of workers and their collective perception. At a distance of a hundred fifty years, its red flag continues to flutter and to remind us that an alternative is always possible. Vive la Commune!

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